प्रेम प्रदर्शिनी | Prem Pradarshni
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
65
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)करत कामना सन सधुय, पींवन प्रेम पराग॥
पै यहि चाखत चतुर ही, करि करि सत श्रनुराग ।
गलि अस परम पराग पी, सह सह के नित पीर ॥
अमित अ्रपावन रावरौ, सुरभित होय शरोर ।
- सुधा পিল্ভু सहसा मिले, रोगिन अंग श्रानन्द ॥
पे मधुकर यहु यतन बिन, मिले नहीं मकरन्द |
कत तड़पत तू बाबरे, जिपिटि लता की सुन ।
जाकौ जोहत दुष्य सुहावन, नित जरत जगत के नर नारी,
जीवर जन्तु सबही के मानस, मञ्च जाकी वचिपटी चिनलगारी।।
लाल” कथत किमि पारक्य यहि, गुन गभित हे भिरधारी।
छूं०-- क्प रग पं मोहत ही मन, श्रकरुर श्रकूरत रग
जब सो जे अस श्रम जरावत, श्रगारे जस आग
दो*- पावन प्र म पयोधि को, कबहु न श्रावत अर त 11
ब्ूढत बहुत यहि घारहि, सबहो संत अखसंत ।
আল जंतु के गलन में, परी प्रेम की पास।
सब ब्याकुल यहि व्याधि सों, लहें न सुख की ह्वांस ॥।
अलि चढ़ि कें चखि ऊवरे, विक्से सुन्दर फूल ॥.
११
छं०-- प्रम पयोधि अमित ही पावन, पै भ्रन्तर अनल जरति भारी ॥
ब्याकुल बिचरत बीहड़ बारी, प्यासे प्रेम पराग के ।
दश दिशिन चितवत चकित अ्स जस, खेलने हारे फांग की
- रूप रंग को निरखि कें, उर भ्रति अंकुरत राग। ..
जबही जाके मध्य में, परत प्रम कौ दागक
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