प्रेम प्रदर्शिनी | Prem Pradarshni

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Prem Pradarshni by हुब्बलाल वैद्य - Hubblal Vaidh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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करत कामना सन सधुय, पींवन प्रेम पराग॥ पै यहि चाखत चतुर ही, करि करि सत श्रनुराग । गलि अस परम पराग पी, सह सह के नित पीर ॥ अमित अ्रपावन रावरौ, सुरभित होय शरोर । - सुधा পিল্ভু सहसा मिले, रोगिन अंग श्रानन्द ॥ पे मधुकर यहु यतन बिन, मिले नहीं मकरन्द | कत तड़पत तू बाबरे, जिपिटि लता की सुन । जाकौ जोहत दुष्य सुहावन, नित जरत जगत के नर नारी, जीवर जन्तु सबही के मानस, मञ्च जाकी वचिपटी चिनलगारी।। लाल” कथत किमि पारक्य यहि, गुन गभित हे भिरधारी। छूं०-- क्प रग पं मोहत ही मन, श्रकरुर श्रकूरत रग जब सो जे अस श्रम जरावत, श्रगारे जस आग दो*- पावन प्र म पयोधि को, कबहु न श्रावत अर त 11 ब्ूढत बहुत यहि घारहि, सबहो संत अखसंत । আল जंतु के गलन में, परी प्रेम की पास। सब ब्याकुल यहि व्याधि सों, लहें न सुख की ह्वांस ॥। अलि चढ़ि कें चखि ऊवरे, विक्से सुन्दर फूल ॥. ११ छं०-- प्रम पयोधि अमित ही पावन, पै भ्रन्तर अनल जरति भारी ॥ ब्याकुल बिचरत बीहड़ बारी, प्यासे प्रेम पराग के । दश दिशिन चितवत चकित अ्स जस, खेलने हारे फांग की - रूप रंग को निरखि कें, उर भ्रति अंकुरत राग। .. जबही जाके मध्य में, परत प्रम कौ दागक




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