अर्हत प्रवचन | Arhat Pravachan

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Arhat Pravachan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डा हे तत्त्वाय सूत्र के छटठे अध्याय में आस्व के कारणों का जो विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया हे वह हृदयंगस करने योग्य है । कमं आत्मा फ गुण नहीं हैं कुछ दाशैनिक कर्मों को आत्मा का गुण मानते हैं। पर सैन मान्यता इसे स्वीकार नहीं करती | अगर पुण्य पाप रूप कर्म आत्मा के गुण हों तो वे कभी उसके बन्धन के कारण नहीं द्वो सकते | यदि आत्मा का गुण स्वय ही उसे वांधने लगे तः कभी उसकी सुक्ति नदीं दो खफती । बन्धन मूल वस्तु से भिन्न होता है, वन्धन का विजातीय होना जरूरी ह 1 चदि कमो को आत्मा का गुण माना जाय तो कर्म नाश होने पर आत्मा का नाश भी अवश्य॑- भावी है; क्‍यों कि गुण और शुणी सर्वथा भिन्न भिन्न नहीं दोते | वन्धन आत्मा वी स्वतन्त्रता का अपहरण करता है; किन्तु अपना द्वी शुण अपनी ही स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं कर सकता । पुएय और पाप नामक कर्मों को यदि সালা का गुण सान लिया जाय तो इनके कारण आत्मा पराधीन नहीं दोग; श्रौर यदद तक एवं प्रतीति सिद्ध है कि ये दोनों आत्मा को परनम्त्र बनाये रखते हैं. । इस लिए ये आत्मा के गुण नहीं किन्तु एक भिन्न द्रव्य हैं। ये भिन्न द्रव्य पुदूगल है.। অহ ভন, হজ, গন্য और स्पश वाला एवं जड है । जब राग-दे पादिक विकृतियों के द्वारा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घातने का सामथ्य जड़ पुदूगल में उसन्न हो जाता है तब यही कमे कहलाने लगता है । यह्‌ सामथ्ये दूर होते ही यद्दी पुदुगल दूसरी पर्याय धारण कर लेता है । कम आत्मा से कैसे अलग होते हैं आत्मा और कर्मों का संयोग सम्बन्ध दे । इसे ही जैन परिभाषा में एकस्लेत्रावगाह सम्बन्ध कद्दते हैँ | सयोग तो श्रस्थायी द्वोता है। आत्मा के साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है । अतः इसका विधटन अवश्यभावी है । खान से निकत्ते हुए स्त्र्ण पापाण में स्वर्ण के अतिरिक्त बरिजातीय वस्तु भी है| । वह ही उसकी अशुद्धता का कारण है । जब तक वह अशुद्धता दूर नहीं होती उसे सुवर्णत प्राप्त नदीं होता । जितने च्रशों मे वह्‌ बिज्ञातीय सयोग गहना हेः उतने अंशों में सोना হু रहता है 1 यदी दयाल গ্সাদা का द । फर्मो की अशुद्धता को दूर करने के लिये आत्मा को घलवान प्रयत्न बरने पढ़ते हैं। इन्हीं प्रयरत्नों का नाम तप है। तप का प्रारम्भ भीतर से होता है । याह्य तपों को जैन शानो मे कोई मदच्य नदीं दिया गया द । अभ्यन्तर तप की वृद्धि के लिये जो वाह्य तप अनिवाये हैं. वे स्वत: ही द्वो जाते हैं । तयों पा जो अन्तिम भेद ध्यान दे वही क्मेनाश का कारण है । श्रतज्ञात की




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