अर्हत प्रवचन | Arhat Pravachan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
202
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)डा
हे तत्त्वाय सूत्र के छटठे अध्याय में आस्व के कारणों का जो विस्तार
पूर्वक विवेचन किया गया हे वह हृदयंगस करने योग्य है ।
कमं आत्मा फ गुण नहीं हैं
कुछ दाशैनिक कर्मों को आत्मा का गुण मानते हैं। पर सैन मान्यता
इसे स्वीकार नहीं करती | अगर पुण्य पाप रूप कर्म आत्मा के गुण हों तो वे
कभी उसके बन्धन के कारण नहीं द्वो सकते | यदि आत्मा का गुण स्वय ही
उसे वांधने लगे तः कभी उसकी सुक्ति नदीं दो खफती । बन्धन मूल वस्तु
से भिन्न होता है, वन्धन का विजातीय होना जरूरी ह 1 चदि कमो को
आत्मा का गुण माना जाय तो कर्म नाश होने पर आत्मा का नाश भी अवश्य॑-
भावी है; क्यों कि गुण और शुणी सर्वथा भिन्न भिन्न नहीं दोते | वन्धन
आत्मा वी स्वतन्त्रता का अपहरण करता है; किन्तु अपना द्वी शुण अपनी
ही स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं कर सकता । पुएय और पाप नामक कर्मों को
यदि সালা का गुण सान लिया जाय तो इनके कारण आत्मा पराधीन नहीं
दोग; श्रौर यदद तक एवं प्रतीति सिद्ध है कि ये दोनों आत्मा को परनम्त्र
बनाये रखते हैं. । इस लिए ये आत्मा के गुण नहीं किन्तु एक भिन्न द्रव्य हैं।
ये भिन्न द्रव्य पुदूगल है.। অহ ভন, হজ, গন্য और स्पश वाला एवं जड है ।
जब राग-दे पादिक विकृतियों के द्वारा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घातने का
सामथ्य जड़ पुदूगल में उसन्न हो जाता है तब यही कमे कहलाने लगता है ।
यह् सामथ्ये दूर होते ही यद्दी पुदुगल दूसरी पर्याय धारण कर लेता है ।
कम आत्मा से कैसे अलग होते हैं
आत्मा और कर्मों का संयोग सम्बन्ध दे । इसे ही जैन परिभाषा में
एकस्लेत्रावगाह सम्बन्ध कद्दते हैँ | सयोग तो श्रस्थायी द्वोता है। आत्मा के
साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है । अतः इसका विधटन अवश्यभावी है ।
खान से निकत्ते हुए स्त्र्ण पापाण में स्वर्ण के अतिरिक्त बरिजातीय वस्तु भी
है| । वह ही उसकी अशुद्धता का कारण है । जब तक वह अशुद्धता दूर नहीं
होती उसे सुवर्णत प्राप्त नदीं होता । जितने च्रशों मे वह् बिज्ञातीय सयोग
गहना हेः उतने अंशों में सोना হু रहता है 1 यदी दयाल গ্সাদা का द ।
फर्मो की अशुद्धता को दूर करने के लिये आत्मा को घलवान प्रयत्न बरने
पढ़ते हैं। इन्हीं प्रयरत्नों का नाम तप है। तप का प्रारम्भ भीतर से होता है ।
याह्य तपों को जैन शानो मे कोई मदच्य नदीं दिया गया द । अभ्यन्तर तप
की वृद्धि के लिये जो वाह्य तप अनिवाये हैं. वे स्वत: ही द्वो जाते हैं । तयों
पा जो अन्तिम भेद ध्यान दे वही क्मेनाश का कारण है । श्रतज्ञात की
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