प्रवचन रत्नाकर [भाग-६] | Pravachan Ratnakar [Bhag-6]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवचन- रत्नाकर [ भाग-६ ] सवर अधिकार अथ प्रविशति संवरः, । (शार्दूलविक्रीडित) आसंसारविरोधिसंवरजयैकांतावलिप्तासव- न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं संपादयत्संवरम्‌। व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपेस्फ्र- ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्रभारमुज्जम्भते। । १२५।। दोहा मोहरागरुष दूरि करि, समिति गुप्ति व्रत पालि! संवरमय आतम कियो, नम्‌ ताहि, मन धारि।। प्रथम टीकाकार आचा्यदेव कहते हँ कि अब संवर प्रवेश करता है! आस्रव के रंगभूमि में से बाहर निकल जाने के बाद अब संवर रंगभूमि में प्रवेश करता है। यहाँ पहले टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वाँग को जाननेवाले सम्यक्‌- ज्ञान की महिमादर्शक मंगलाचरण करते हैं:- श्लोकार्थ :- [ आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त- अवलिप्त- आस्रव-न्यक्कारात्‌ ] अनादिसंसार से लेकर अपने विरोधी संवर को जीतने से जो एकान्तगर्वित (अत्यन्त अहंकारयुक्त) हुआ है--ऐसे आस्रव का तिरस्कार करने से [ प्रतिलब्ध-उत्पन्न करती हुई, [ पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूप से भिन्न (अर्थात्‌ परद्रव्य ओर परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले भावों से भिन्न), [ सम्यक्‌-स्वरूपे नियमितं स्फरत' ] अपने सम्यक्‌ स्वरूप मँ निश्चलता से प्रकाश करती हर्द, [ चिन्मयं ] चिन्मय, [ उज्ज्वलं ] उज्जवल (-निराबाध, निर्मल, दैदीप्यमान) ओर [ निज-रस- प्रारभारम्‌ ] निजरस के (अपने चैतन्यरस के) भार से युक्त-अतिशयता से युक्त [ ज्योतिः ] ज्योति [ उज्जृम्भते ] प्रगट होती है, प्रसरित होती है।




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