नैषद महाकाव्य सर्ग - 3 | Naishadh Mahakavyam Sarg-iii

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : नैषद महाकाव्य सर्ग - 3  - Naishadh Mahakavyam Sarg-iii

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about रमेशचन्द जैन -Rameshchand Jain

Add Infomation AboutRameshchand Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
८.९.) द्यन चक्षु पत्तित दद्ध तत्रैव तत्कान्तिजले निमग्नम्‌ । गपान्घमानोकयपितु सटसरनेत्राय भूषा स्पृुयावभूवु ॥ धर्मं १७१५ अ्ृज्ञाखती के जिस बह्ड में चक्षु पडते थे, वही-वहीं कान्तिख्पी जल से डूब जाने थे । अत अवशिष्द जज्भ देखने के दिए राजा जोग सहस्र नेत वी इच्छा कब्ते थे। दमयती के सूपमाधुय का पान करते समय লন के नतों की भी लगभग ऐसी ही स्थिति हुई है । दमयल्ती की इप्टि भी नल के रूप को देखन में डूब गयी है। ततन्न॑व मग्ना यदपद्यदग्रे नास्या दुगस्याज्ल मयास्यदन्यत्‌ । मादास्यदस्य यदि वुद्धिधारा विच्छिद्य चिरान्निमेप ॥ नैपध 5|६ दमयती की दृष्टि नल के जिस जज्ञ पर पड़ी उसी में भबकर रह गयी, হুল आज्जञ को प्राप्त नही हुईं । पर वहत देर तक रक-रुक कर पलक गिरने से उनकी दद्धि का विच्छेद हाने के कारण वह जय अद्गों को दख पायी। घमशर्माम्युदय में बताया गया है कि दिव्यागनाए प्रथम महासेन को सुतरूप में अपने आगमन का प्रयोजन कटनी रै पटचात्‌ माप्य क्र विस्तृत रूपमे সদনালী ই उवतमागमनिमित्तमात्मन मूत्रवत्किमपि यत्ममासत । तम्यभाप्यमिव विस्तरान्मया वण्यंमानमवनीपते श्रृणु ॥ छर्म ५|३० इस उप्रेक्षा का प्रमाव नैपघर वे उम मन्दम पर है, जिसमे दमयन्ती देवो कौ प्रन्युसर देते सबय दूतरुप मे प्रन्दन नलमे प्रावना करती है1 स्तक मया वाम्मिपु तेषु शक्यत्ते न तु सम्यगम्विवरीतुमृत्तरम्‌ 1 तदश्न मद्भापितसूत्रपद्धतों प्रवन्धृतास्तु प्रतिबन्धृता न ते ॥ नेपध ६|३७ मेरो सृत्रस्प में कहीं हुई बात के प्रति हे दूत, तुम भाष्यकार बनना दूपणक्ार नहीं ,क्योरि मैं अबला उन विद्वानों को उत्तर ही क्या दे सकती हूँ। म प्रतार नैपध में कई उप्रेक्षाएं धमश्नर्माम्युदय से प्रभावित प्रतीत লীলা ই: नपधे पाण्टित्य अथवा नैपध विद्ददोपधम्‌ -- श्रो हर्ए नर्नपध की रचता में सपने समस्त ज्ञान भण्डार का परिचय प्रस्तुत किया है | परिणामस्वरूप काव्य काय न रहकर विविध विपयो না নীহা बन गया है। [इमीलिए कवि के सम्बय में यह उक्ति प्रतिद्ध है दि “नैषध १ सरइत काव्य के विकास में जेनकवियों का योगदान पू २७६-२८१




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now