यजुर्वेदभाषाभाष्य - भाग 1 | Yajurved Bhasha Bhashy Part 1

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Yajurved Bhasha Bhashy Part 1 by दयानंद सरस्वती - Dayanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमोष्ष्यायः ॥। १५ ^^ ~~~ ^~ ^^ ^^ ~~~ ~+ ~~~ ~~~ পা ~ ~~~ -- ~ -------~----~ ~~ ~~ ~^ ~<-----~-^~~ >^ ~ ~~~~~--~~~~~~ ~~ ~+ ~~ कुक्कुटोऽमि मघुंजिहुश्दषमजजमाव॑द त्वयां वर संघात* संघातं जेऽम वषदधममि प्रति त्वा वषबूद्ध वेच परापूत९ रक्ष; परापूता अर।तयोऽपंहत५ रच्छ वायुवें! विविनक्तु देवो व! सविता हिर॑स्यपाणिः प्रतिंगृमणात्वडिंछद्रेण पाणिना ॥ १६ ॥ पदार्थ:--जिस कारण यह यन्त ( मघुजिह्ः ) जिस में मधुर गुणयुक्त वाणी हो | तथा ( कुक्‍्कुटः ) चोर वा शज्ुओं का घवित्ताश करने वाला ( असि ) है । ओर ( इषम्‌ ) अन्न आदि पदार्थ वा ( ऊर्जम ) विद्या आदि बल और उत्तम से उत्तम रस को देता है। इसी से उसका अनुष्ठान सदा करना चाहिये । हे विद्वान्‌ लोगो ! तुम उक्त गुणों को देनेवाला जो तीन प्रकार का यज्ञ है उस का अनु्ान और हम लोगों के प्रति उस के गुणों का ( आवद ) डपदेश करो जिस से ( वयं ) हम लोग ( त्वया ) तुम्हारे साथ ( संघात संघातम्‌ ) जिन में उत्तम रीति से शत्रुओं का पराजय होता है अर्थात्‌ भ्रत्ति भारी संग्रार्मों को बारंवार ( थ्रा जेष्म ) सब प्रकार से जीतें क्योंकि आप युद्धविया के जानने वाले ( श्रसि ) हैं इसी से सब मनुष्य ( वर्षवद्धमू ) शल्य श्रोर अखविद्या की वो को बढ़ानेवाले ( त्वा) श्राप तथा ( वर्षबृद्धम ) दृष्टि के बढ़ाने वाले उक्त यज्ञ को ( प्रतिवेत्त ) जानें । इस प्रकार संग्राम करके सब भनुष्यों को ( परापृतस्‌ ) पवित्रता भ्रादि गुणों को छोढ़नेवाले ( रक्तः ) दुष्ट मनुष्य तथा ( परापूताः ) शुद्धि को छोड़ने चाले ओर ( अरातयः ) दान आदि धर्म से रहित शब्रुजन तथा ( रक्त: ) डाकुओं का जैसे ( अपहतम ) नाश हो सके चेला प्रयल्त सदा करना चाहिये जैसे यह ( हिरण्यपाणिः ) जिस का ज्योति हाथ है ऐसा जो ( वायुः ) पवन है, वह ( श्रच्छिद्रेण ) एकरस ( पाणिना ) अपने गसनागमन व्यवहार से यज्ञ और संसार में श्रप्नि और सूर्य ले अ्रति सूच्म हुए पदार्थों को ( प्रतिगरभ्णातु ) अर्ण करता है ( हिरण्यपारिः ) वा जैसे किरण है हाथ जिसके वह ( हिरण्यपाणिः ) किरणभ्यवार से ( सविता ) चष्ट वा प्रकाश के दवारा दिव्य गुणौ के उत्पन्न करने में हेतु ( देवः } प्रकाशमय सूय्य॑लोक ( बः ) उन पदार्थो को ( विविनष्, ) प्रलग २ श्रयोत्‌ प्रमारूप करता है वैसे ही परमेश्वर वा विद्धान्‌ पुरुष ( श्रच्छिदरेण ) निरन्तर ( पाणिना ) अपने उपदेशरूप व्यवहार से सब विद्याप्नों को ( बिविनक ) प्रकाश करं वैसे ही कृपा करके प्रीति के साथ ( चः } तुमको अत्यन्त आनन्द करने के लिये ( प्रतिगरभ्णातु ) अहण करते ई ॥ १६ ॥ भावाथै!--इस मंत्र में श्लेपालड्रार है--परमेश्वर सब मजुर्ष्यों को आज्ञा देता कि यन्त का भनुष्ठान संग्राम में शत्रुओं का पराजय, श्रच्छे २ गुणों का स्न, विद्वान की सेवा दुष्ट मनुप्यवा दुष्ट दोषों का त्याग तथा सब पदार्थों को अपने ताप से छिन्न भिन्न करने वाला अप्लि वा सूर्य और उनका धारण करने वाला वायु है, ऐसा ज्ञान और ईश्वर की उपासना तथा विद्वानों का समागम करके झौर सब विदामो को प्राप्त होके सवे लिये सब सुखे की उपपन्न करने वाली उन्नति सदा करनी चाहिये ॥ १६ ॥ धृष्टिरसीर्यस्य ऋषिः स एव । अभ्निदेवता । ब्राह्मी पंक्तिश्ठन्दः । पंचमः खरः ॥ अब अप्लिशव्द से किस २ का ग्रहण किया जाता और इससे कया २ काय्ये होता है इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है ॥




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