देव शास्त्र और गुरु | Dev Shastra Aur Guru

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Dev Shastra Aur Guru by सुदर्शन लाल जैन - Sudarshan Lal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय देव (अर्हन्त ओर सिद्ध) का स्वरूप प्रस्तावना ससार मे अनेक प्रकार के आराध्य देवों, परस्पर विरुद्ध कथन करने काले शास्त्रो तथा विविध रूपधारी गुरुओं की अनेक परम्पराओं को देखकर मानव मात्र के मन मे स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि इनमे सच्वे देव, सच्चे सान्न ओर सच्चे गुरु कौन है? जिनसे स्वय का एवं संघार के प्राणियों का कल्याण हये सकता है! किसी भी कल्याणकारी धर्म की प्रामाणिकता की कसरी उसमे स्वीकृते आराध्यदेव, शाख (आगम) ओर गुर है। वदि आराध्य देव रागादि से युक्त हो, शाख रागादि के प्रतिपादक द्यं तथा रागादि भावो से युक्त केकर पुरु सगादिजनक विषयों के उपदेष्टा हो तो उनसे किसी धी प्रकार के कल्याण की कामना नही की जा सकती है। अतः कल्याणा्थीं को सच्चे देव, शाल ओर गुरु की ही शरण लेना चाहिए। जैनधर्म के आगम ग्रन्थो मे सच्वे देव, शाक ओर गुरु की जो पहचान बतलाई है उसका विचार बहो क्रमशः तीन अध्यायो मे किया जबेगा। सच्चे देव शब्द का अर्थ जैन आगमों मे 'देव' शब्द का प्रयोग सामान्यतया जीवन्युक्त (अर्हन्त), विदेहमुक्त (सिद्ध) तथा देव गति के जीवो के लिए किया गया है। इनमे से प्रथम दो (अर्हन्त ओर सिद्ध) पे ही वास्तविक देवत्व है, अन्य मे नही । देवगंति के देव चार प्रकार के हैं'- भवनवासी (परायः भवनो मे रहने काले), व्यन्तर (विविध देशान्तरों तथा वृक्षादिको मे रहने वाले), ज्योतिष्क (अकाशमान सूर्य, चन्रमा आदि), अदर वैमानिक (रूढि से चिमानकासी, क्योकि ज्योतिष्क देव भी त्रिमान में रहे है)। देवमति में स्थित इन चार प्रकार के जीवों में बैमानिक देवो की शरष्ठता है। वैमानिको में भी सर्वाध॑स्रिध्दि तथा लौकान्तिक (पंचम स्वर्गवर्ती) के देव एक यार मनुष्य १. देवाअतुरणिकाया। -त०सु० ४.१. के पुनस्‍्ते? भवरकसिनो व्यन्तर ज्योक्तिका वैमानिकाश्षेद्ि। “स० सि० ४.३.




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