राष्ट्रीय कवि दिनकर और उनकी काव्यकला | Raastriy Kavi Dinkar Aur Unki Kavyakala

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Raastriy Kavi Dinkar Aur Unki Kavyakala by शेखरचंद्र जैन - Shekharchandra jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[क्ष] इन ग्रंथों के उपरांत 'जनकवि दिनकर,” 'दिग्भ्रमित कवि दिनकर, “दिनकर एकः पुनर्मूल्थांकम! आदि अनेक छोटे-बड़े आल्ोचनात्मक ग्रंथ प्रकट हुए हैं किसी ने कवि के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी प्रशस्ति की है, तो किसी ने दिग्श्रमित कटकर उनकी कदू-आलोचना की है। इन ग्रंथों के उपरांत दिनकर सृष्टि मौर दृष्टि तथा भदेनकर! शीर्षक ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं, जिनमें कवि की क्रतियों और विचारों पर विभिन्न लेखकों के स्फुट निबंध है। इस भ्रकार दिनकर के कृतित्व और उपलब्ध समस्त आलोचनात्मक सामग्री का मैंने अध्ययन और अनुशीलन किया है, और उससे लाभान्वित भी हुआ हूँ । फिर भी विनम्जता के साथ में यह कहना चाहेंगा कि राष्ट्रीय काव्य-धारा के परिपेक्ष्य में दिनकर के काव्य के अनुशीलन का मेशा प्रयास सर्वया नवीन है । साथ ही दिनकर की काव्य-कला के सौन्दर्य का उद्घाटन करने के लिए घनकी भाषा, छल्द एवं अलंकार योजना पर शोध दृष्दि से परीक्षण करने का मैंने” प्रयास किया है । प्रघ्यापोकरण : स्तुत अधि-निवध तीन खण्डो भौर छ. अध्यायो भे विभक्ते है । तीन सखण्ड इस प्रकार है-- £--राष्टरीमता भौर दिनकर २--दिनकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ३--दिनकर की काव्य-कला प्रथम खण्ड 'राष्ट्रीयवा और दिनकर” दो अध्यायीं में विभाजित किया गया है । प्रथम अध्याय “राष्ट्र और राष्ट्रीयता' है राष्ट्रीयता के संदर्भ मे कवि का अध्ययन, अनुशीलन करने से पूर्व राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता के विधायक तत्त्वो को जान लेना उचित ही नही, अपितु आवश्यक है। इसी दृष्टि से प्रवध के प्रथम खंड के प्रथम अध्याय में मैंने राष्ट्र और राष्ट्रीयता का सम्यक्‌ अनुशीलन किया है । दसी अध्याय के अन्तर्गत राष्ट्रीय जागरण को वेगं देते वाली अन्य राजनीतिक, आधिक तथां सामाजिक परि- स्थितियों पर भी विचार किया गया है 1 यह अध्याय मैरी गवेपणा का प्रतिपाद न होते हुए भी विषय की भूमिका के रूप में मुझे आवश्यक प्रतीत हुआ है । आश्या है इसकी अवलोकन इसो दृष्टि से किया जाग्रेगा। |. द्वितीय अध्याय 'हिन्दी-साहित्य में राष्टीयता और दिनकर' में हिन्दी-साहित्य में विकसित राष्ट्रीय काव्य-धारा पर विचार किया है। प्राचीन काल के अपभ्रेंश और चारण-साहित्य मे उपलब्ध राष्ट्रीयता के स्वरूप का वर्णन करते हुए भवित-कालीन ओर रीति-कालीन साहित्य मे तत्सम्बंधी जो साक्ष्य उपलब्ध होते है, उन पर भ्रकाश डाला गया है । अर्वाचीन साहित्य मे राप्ट्रीयता का अनुशीलन करने के लिए सुविधा की दृष्टि से उसे भारतेन्दु-कालीन साहित्य में राध्ट्रोयता, डिविदी-कालीन-साहित्य में




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