भक्तिकाव्य की सामाजिक सांस्कृतिक चेतना | Bhakti Kavya Ki Samajik Sanskritik Chetna

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Book Image : भक्तिकाव्य की सामाजिक सांस्कृतिक चेतना - Bhakti Kavya Ki Samajik Sanskritik Chetna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिंदी भवितकाव्य की दिशाए 3 आगे का सर्जन पूरे उत्साह से चल सके । इस सदर्भ मे चौदहवी शती वे आरभ में भ्रियाशील रामानद का विशिष्ट प्रदेय है गौर वे हिंदी भक्तिवाब्य वे महत्वपूर्ण प्रेरणाश्रोत हैं । बौद्ध प्रभाव भक्तिकाव्यके पूवं सिद्धो, नाथो मादिका वई शताब्दियो का समय फला हुमा है । राहुल साइत्यायन ने सिद्धो का समय 800 से 1200 ई० तक माना है और उनवा कथन है कि सरहपाद प्रथम सिद्ध थे। सिद्धों, नाथो की परपरा वी ठीक समझ हिंदी म काफी विलव से हुई । घािक सप्रदायगत आधार के कारण पहले इन्हे हिंदी भे लगभग साहित्येतर माना गया और वह स्थान नहीं दिया गया जो किसी मुख्य आदोलन के पूर्वाभास को मिलता चाहिए । आचार्य रामचद्र शुक्ल ने सिद्धो, नाथो की सामाजिक स्थिति को स्वोकारते हुए 'हिंदो साहित्य का इतिहास” म॑ सर्वप्रथम उनके उत्स का उल्लेख किया बोद्धधर्म विद्तत होकर बद्धयान मप्रदाय के रूप मे देश के पूरबी भागी में बहुत दिनो से चला आ रहा था । इन वौद्ध ताबिको के वीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुचा। ये विहार से लेकर असम तक फंले थे और सिद्ध कहलाते थे । “चौरामी सिद्ध” इन्ही मे हुए हैं जिनका परपरागत स्मरण जनता को अब तक है। इन तात्निक योपियो को लोग अलौक्कि शक्तिसपन्‍न समझते थे | ये अपनी सिद्धियो और विभूतियो के लिए प्रसिद्ध थे? गीरखनाथ के नाथपथ का मूल भी वौठो वी इसी वजद्यान शाखा को स्वीवारते हुए उन्होने नाथपथियो की सास्द्वतिक सौमनस्य की चेप्टा का विशेष उल्लेख क्रिया गोरखनाथ की हठयोग साधना ईश्वरवाद कौ लेकर चली थी अत उसमे मुसलमानों के लिए भी आकर्षण था। ईश्वर से मिलानेवाला योग हिंदुओं मौर मुमलमानो दोनो के लिए एक सामान्य साधनाके रूपमे भागे रवा जा सकता है, यह्‌ वात गोरखनाथ को दिखाई पड़ी थी। अत उन्होने दोनों के विद्वेपभाव को दूर करके साधना का एक सामान्य मांग निकालने की सभा- बना समझी थी ओर वे उसका सस्कार अपनी शिप्यपरपरा में छोड गए খা कितु सास्कृतिक सौमनस्प की स्वीकृति क बावजूद आचार्य शुक्ल इसी 'अपन्रश- काल' के विवेचत में कहते हैं कि 'नाथ सप्रदाय म अशिक्षित श्रेणियों के ऐसे लोग आए जो शास्त्रज्ञानसपन्न न थे और जिनकी बुद्धि का विकास सामान्य कोटि का था ।' अत में उनकी निष्कर्पात्मक ट्विष्पणी सिद्ध-नाथ साहित्य को हिंदी साहित्य वी धारा से अलगा देती है




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