हिंदी का निखार तथा परिष्कार | Hindi Ka Nikhar Tatha Parishakar

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Hindi Ka Nikhar Tatha Parishakar by शिवप्रसाद शुक्ल - Shivprasad Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ हिन्दी का निखार तथा परिष्कार श्राप कह सक्ते हँ कि इसे निखार कैसे कहते हैँ ? “गिठी' श्रौर “धोत्ती भादि को.विकृत कहने मे प्रमाण क्या है ? प्रमाण ই। লামা की नैसर्गिक श्रौर विकृत-परिष्कृत रूप का निर्णय करने में (भाषा की) परम्परा, लोक-प्रचलन, भाषा विज्ञान और व्याकरण से काम लिया जाता है। वेद-भाषा में, लौकिक संस्कृत में, और आधुनिक भाषाओं में पति! 'त' और 'ती' प्रत्यय दिखाई देते है; “त्ति (तः 'त्ती” नहीं । प्राकृत साहित्य में भ वैसे वर्ण-द्वित्व दिखाई देते है; परन्तु यह प्राकृत कृतिम है; उस समय के साहि- त्यिको की गी इई । हो सकता है कहीं किसी भूमाग के जन किसी शब्द को विक्ृत करके बोलते हो । पर उनके उस कंठ-विकार' को श्रादरो न मान लिया जाएगा । “लिखा तो है” को यदि कोई “लिक्ला तो है! पढ़े-बोले तो उसे कोई आदशे न मान लेगा; क्योंकि 'लिक्खता है” 'लिक्खना' जैसे उच्चारण वह भी नहीं करता । “लिक्खा है! बोलने वाला भी अन्यत्र लिख धातु का प्रयोग करता है--लिखता है “लिखना है” बोलता है। इससे स्पष्ट है कि 'लिक्खा है” बोलना उसके कंठ की विक्रृति है। जन- भाषा में “'लिक्खा है! चलता भी रहे, पर साहित्यिक भाषा में उसे ग्रहण न किया जाएगा । साहित्य का क्षेत्र देश तथा काल से सीमित नहीं होता । 'हूस” और श्रमरीका' के लोग 'लिख' धातु के पद “लिखा है लिखो भ्रादि में क का भ्रागम न करेंगे । भारत मे भी सर्वत्र कः का श्रागम नहीं किया जाता ; यद्यपि “रख” धातु के पद ^रखा हैः को “रक्ला है बोलते हैँ । परन्तु वैसा बोलने वाले” भी लिखते हैं--“रखा है ही; यद्यपि पचीस-तीस वषं पहले तक “रक्खा' लोग लिखते रहे हैं। फिर “रक्खा है का संस्कार हुआ । बताया गया कि धातु “रख” है; इसलिए “रखा है! लिखना चाहिए । जो लोग 'क' का आगम करके बोलते हैं, वे “रखा है' को ही “रखा है पढ़ लेंगे । बंगाली विद्धान संस्कृत के “जलं पिवामि का उच्चारण “जोलं पिवामि' जेसा करते हैं; पर लिखते है--“जलं पिवामि ही । स्थानीय उच्चारण-मेद को साहित्य मेँ प्रकट करते का उपयोग नहीं किया जाता; क्योकि वह्‌ व्यापक होता है । परन्तु इस उच्चारण-भेद से उसकी लिखावट नहीं बदलती ।२ अब आप शधोत्ती लात्ता है! आदि को लें। ^तीः ग्रौर त हिन्दी के श्रपने प्रत्यय हैं भर हिन्दी संघ की सभी माषाग्रो मे चलते हैँ । “रती से काम कर लो' बोला जाता है 'फुरत्ती से नष्टीं । धरती को कोई धरत्ती' नहीं बोलता । “জাছা है श्रात्ता है बोलने बाले भी करता है पठता है श्रादि को कर्ता है 'पढ़त्ता है' नहीं बोलते । इससे स्पष्ट है कि कहीं वणं द्वित्व कर देना एक जनपदीय प्रवृत्ति है श्रौर वहाँ बह = स्वाभाविक है | वहाँ वह “विकार' नहीं । परन्तु भ्रागे चलकर जब निखार होता है, तो चीज कुछ बदल जाती है। ब्रज, राजस्थान, पाञ्चाल, श्रवध, कुमायू, बिहार श्रादि १. भारतीय भाषा विज्ञान, पु° १४३ २. हिन्दी शब्द मीमांसा प° २२,२३




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