पर्णा | Parna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ मिःसंतान राजा बात ऐसी थी, कर्णद्वीप के महाराज निःसंतास थे । न जाने यह कैसा दैवी कोप था कि राजवंश में कोई मी निकट सम्बन्धी बचा नहीं रह गया था, कुछ दूर के थे ज़रूर रश्जनगर के सरदारों में लेकिन वे द्वीप के आदिम-रक्त से बहुत मिल्न-जुल गये थे । इसलिए उनकी ज़रा भी इच्छा न हुई कि उनके यहाँ से कोई लड़का गोद लिया जाय । महाराज का कुहलूटक नागा पर पक्का विश्वास था । उनका कहना था, अगर वे सच्चे मन से रानी को संतान का आशीर्वाद दे देंगे तो अवश्य ही उनकी गोद भर जायगी । लेकिन रानी के मन मे पहले ही कोई श्रद्धा नहीं जागी थी | फिर उस दिन निमनन्‍्त्रण की घटना से तो वह बिल्कुल उनका विरोध करने क्लगी । महाराज ने फिर एक दिन रानी से अनुनय-विनय की--“देखो रानी, काज्न दिननरत हमसे हमारा वय-यीवन छीनता चला जा रहा है | पितरों की ठृष्ति के ल्षिए ही नहीं, यह करुद्वीप की प्रजा--इसके प्रति हमारा उत्तरदायित्व है। हमें इसको अनाथ नहीं होने देना है ।” “तो में आपसे कह तो रही हूँ कि ढ्वीप की किसी सुन्दरी कन्या को आप वर लें । अनेक सुन्दरी कन्याएँ यहाँ मौजूद हैं ।--रानी ने कहा । “नहीं, ऐसा नहीं कर सकता |?” “यह आपका एक टूटा ही पाखंड दै । जिस भारतवपे से आप यहाँ आए हैं, क्या चहाँ आप स्ंधा एक विशुद्ध जाति के थे ? नदी की भाँति मनुष्य की जातियाँ भ्रमणशील् हैं । जिस तरह नदियाँ एक दूसरे में मिलती रहती हैं, ऐसे ही जातियाँ मी तो | आदि काल में क्‍या इतनी ही जातियाँ बनाई गई थीं ? कभी नहीं । सभी घमवाले कहते




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