नंददास भाग - 1 | Nanddaas Part 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ 1 নবহাজ गई हैं। सं० १८5७० के आसपास की लिखी हुई पोथियों के शब्दांत के वर्णो को सटा कर लिखने की ही प्रथा पाई जाती है। सं० १८२६९ में कवि मुरलीधर विरचित रत्नावली की विचार-बेली' तथा शब्द-विन्यास में कछ आधुनिकता बतलाई गई है। “रत्नावली' के साथ प्रकाशित दोहा रत्नावली' में रत्नावली यह कहती है कि सं० १६२७ में तुलसीदास जी उसे छोड़ कर चले गए थे। इस कथन के अनुसार यह कल्पना करनी पड़ेगी कि गुृह-त्याग के पदचात्‌ ब्रजभाषा-भाषी तुलसीदास जी ने चार वर्षो में ही रामचरितमानस' ऐसे प्रौढ़ ग्रंथ की रचना कर ली होगी जो संभव प्रतीत नहीं होता है। इस संबंध में एक और आपत्ति की गई है। सं० 2६२७ के पहले के विलासमय जीवन का वर्णन रत्नावली में प्राप्त होता ই। হালাম্বা সহল' की रचना-तिथि सं० १६२१ है और उस ग्रंथ में इस बात के स्पष्ट उल्लेख मिलते हें कि उस के लिखते समय कवि संसार से विरक्त हो गया था। अतएवं सं० १६२७ में गृह-त्याग की बात भामक प्रतीत ५५ 49 भै, होती है डा० गुप्त की विस्तृत समीक्षा का जो सारांश ऊपर दिया गया हैँ उस से यह स्पप्ट है कि सोरों की अधिकांश सामग्री जितनी महत्त्वपूर्ण है उतनी ही संदिग्ध भी है। जिन पोधियों के संवतों के अंकों से छेड़छाड़ हुई है, जिन की लिपि-शैली को प्राचीन मानने का हमारे पास एक भी प्रमाण नहीं है, जिन की भाषा में आधुनिकता है तथा जिन के उल्लेख अंतर्साक्ष्यों से मेल नहीं खाते हें, उन्हें स्वतंत्र रूप से प्रमाण कोटि में लेना युवित्तयुक्त नहीं प्रतीत होता है। श्रभी तक सोरोंपक्ष में जो कुछ लिखा गया है उस से इन शंकाओं का समाधान नहीं होता है। इस प्रकार सं० १६६९७ की गोसाई जी के चार सेवकन की वार्ता में नंददास तथा तुलसीदास के भ्रातृ-भाव का जो उल्लेख मिलता है वह अकेला ही पड़ जाता हैँ। साथ ही वह संपूर्ण ग्रंथ भी हमारे सामने नहीं ',,जिस से उस की पूरी परीक्षा की जा सके। एक और बात भी अत्यंत ङ এ ५




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