न्यायार्य्यभाष्य | Nyayaryyabhashya
श्रेणी : शिक्षा / Education
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
832
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका ` ९५
रहना ही दुर्लभ है, सांख्य और योग भेदवादी हैं. तथा शब्दशास्त्र
वाले केवल शब्दसिद्धि में ही रत हैं और अन्य सब पासखण्डी हैं,
इसलिये ज्ञान की बात अति दुर्भ है, एकमात्र वेदान्त ही ञान का
साधन है और सव शास्त्र तुच्छ हैं, यादे कोई यह मश्च करे कि
उक्त छोक किसी प्रामाणक पुरुष के नहीं तो उत्तर यह है कि
श्रीस्वामी शङ्कराचार्व्यनी भी पचो दीनो को इसी भाव से देखते
है ओर कहत दै कि यह सव अवीदिक हैं वेदिकरदशन एकमात्र
वेदान्त दी है, इतना ही नदीं उक्त स्वामीजी भेदवादियों को इस
दृष्ट से देखते हैं “ कि जो लोग यह म्श्न करते हैं कि जब एक ही
आत्मा है तो जीव के छुखी दुःखी होने से ब्रह्म ही सुखी दुःखी
होना चाहिये, उक्त प्रश्न करने वाले मू्खों से यह पूछना चाहिये कि
तुमने यह केसे जाना कि आत्मा एक ही है ? यादे वह कहें कि
४ अ्हं ब्रह्मास्मि ” “ तत्त्वमसि ” इत्यादि वाक्यों से जाना दै
तो फिर चह अद्धंजरतीय न्याय का अनुसरण क्यों करते हैं अर्थाव्
हमारे आये मन्तव्य को मानकर आधे का परित्याग क्यों करते है”
भ्र० सू० ११२। ८ शां० भा० और उक्त स्वामीजी ने न्याय वैशेषिक
के परमाणुवाद को तो तर्कपाद में यहां तक दूषित किया है- कि
४ अत्यन्तमेवानपेक्षास्मिन् परमाणवादे कास्यास्यें: ओ-
योधिभिः “इस परमाणुतरादं मे मोक्नाभिराषी आय्यों को असन्त
घृणा करनी चाहिये, और फिर चतुःस्तत्री के भाष्य में लिखा है कि
४ तथाचाचार्य प्रणीतं न्यायोपहेहित खचम ” “ दुश्खजन्म प्रेचू-
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