संस्कृत नाटकों में समाज-चित्रण | Sanskrit Natakon Me Samaj - Chitran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य और समाज ক ই है) 4২7. ने श्रादिसे लेकर श्राज तक जो देखा-सुना है, जो श्रनुभवं -किथा-दँ तथा अपने वा अपने पाइवंवर्ती समाज के हित के लिए जो मर्नन-किया' है, साहित्य उन सब विचारों वा अ्नुभूतियों का एक भहत्त्वपूर्णा लेखा ह 1“ मानव की भाव-विचार-सम्पत्ति परमात्मा की अद्भुत प्रदाति है। मानवेतर प्राणियों में भाव और विचार का साहित्य का स्वभाव एकान्ताभाव न होते हुए भी उनकी हीनता अवश्य परिलक्षित होती है। मनुष्य ते अपनी विवेचना-शक्ति से वर्णामाला का निर्माण किया और गद्य और पद्य में उसका विलास दृष्टिगत हुआ । जब मनुष्य ने अपने भाव और विचार को गद्य-पद्य के मागं से प्रसारित करना प्रारम्भ किया तो साहित्य आविर्भूत हुआ । फिर धीरे-धीरे 'भिन्नरचिहिलोक:” के सिद्धान्त से भिन्न-भिन्न प्रकार की काव्य-पद्धतियाँ विकास सें श्रायीं। वृत्तकाव्य, स्फुटकाव्य, कथाएँ, ग्राख्यायिकाएँ, नाटक आदि श्रनेक प्रकारो के रूप में मानव की चिरन्तन स्वोद्गार-प्रवृत्ति चेतना के विकास के साथ-साथ बहुमुखी हो उरी । व्यक्तिगत श्रौर सामाजिक मनोवृत्ति के निर्माण की अनुकूलता में ही साहित्यिक मार्गों का भी निर्माण हुआ होगा, ऐसा मानने में बाधा इसलिए नहीं होनी चाहिए कि साहित्य को शायद ठीक ही जीवन का दर्पण” कहा गया है। 'जीवन की आलोचना' कहो तब भी बात दूसरी नहीं हो जाती । जबसे मानव की साहित्य-चेतना संगठित होने लगी, तभी से इस प्रशत को लेकर असंख्य व्याख्याएँ उपस्थित की साहित्य क्या है ? जाती रही हैं और ञ्रब तक की जा रही हैं। प्रत्येक व्याख्या में कोई-न-कोई चुटि रही होगी, तभी तो उसके बाद किसी नयी व्याख्या, पिछली व्याख्या के संशोधन अथवा मीमांसा की आवश्यकता पड़ी होगी। फिर भी यह कहना असंभव दुस्साहस ही होगा कि प्रत्येक व्याख्या अशुद्ध है क्योंकि प्रत्येक व्याख्या किसी विशेष विचार का सार लेकर अवतीर्ण हुईं है । जब हम एक व्याख्या को दूसरी से स्वतंत्र करके पढ़ते हैं तो वह हमारी तबीयत से चिपकती हुई-सी प्रतीत होती है साथ ही जव हम उस व्याख्या से सम्बन्धित-वाद आदि को श्रथवा दूसरी व्याख्या या १. .धर्मचन्द संत : सिद्धान्तालोचन, पृ० ३८.




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