टैगोर का साहित्य - दर्शन | Taigore Ka Sahitya-darshan

Taigore Ka Sahitya-darshan by राधेश्याम पुरोहित - Radheyshyam Purohit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्‌ जमेऊ लेंगे तो ब्राह्मण सभा उनका जनेऊ छीनेगी ही थही घटना खमाज में सबसे बड़ी है । अतः कवियों ने इसे यदि श्रपनी रचना में स्थान नहीं दिया तो समभना होगा कि वास्तवता के बारे में उनकी धारणा क्ीखण है । यह सोच कर मेंने चिल्ला जनेऊ-संहार-काव्य । इसका वस्तु- पिण्ड तौल में कम नहीं हुम्रा किन्तु हाय रे सरस्वती ने श्रपना श्रासन बस्तुपिण्ड पर रखा है या पद्म पर इस हष्टान्त के देने का एक कारण है । विचारकों के मतानुसार वास्तवता क्या है यह में थोड़ा-बहुत समभ चुका हूं । मेरे विरुद्ध एक फरियादी ने कहा है कि मेरी सारी रचनाश्रों में वास्तवता का उपकरण यदि कहीं एकत्र हुम्रा है तो गोरा उपन्यास में । गोरा उपन्यास में कौन-सी वस्तु है या नहीं है यह उस उपन्यास का लेखक भी थोड़ा बहुत जानता है । लोगों के मु ह से सुना प्रचिलित हिन्दुत्व की बहुत भ्रच्छी व्याख्या इसमें की गई है । इसी से श्रन्दाज किया है कि वही बास्तवता का एक लक्षण है । वत्तेंमान में कई कारणों से हिन्दू श्रपने हिन्दुत्व को लेकर भीषरण रूप से प्रतिक्रियाशील हो उठे हें । दस विषय में उनके मनकी श्रवस्था सरल नहीं है । विरव-रचना में यह हिन्दुत्व ही विधाता के हाथ की भ्रधान सृष्टि है श्रौर इसकी सृष्टि में विधाता ने श्रपनी सारी शक्ति लगा दीहै। यही हम लोगों का नारा है । साहित्य में वारतवता को जब तोला जाता है तो यह नारा ही बटखरे का काम करता है। कालिदास को हम अच्छा कहते हैं बयोंकि उनके काब्य में हिन्दुत्व है । बंकिमचन्द्र को हम श्रच्छा कहते हैं क्योंकि पर्ति के प्रति हिन्द रमणी का जो रूप हिन्दू-दारत्र सम्मत है वह उनकी नायिकाओ्ों में मिलता है । दूसरे देशों में भी ऐसा होता है । इंग्लेंड में जब इम्पीरियलिज्म का बुखार हर घण्टे बढ़ रहा था तो एक दल के भंगरेज कवियों के काव्य मेंयह रस वंश्गे-वास्तवता प्रलाप कर रही थी ।




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