जैना - लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोश) | Jaina Laksanavali An Authentic & Dictionary Of Jaina Terms
 श्रेणी : साहित्य / Literature

लेखक  :  
                  Book Language 
हिंदी | Hindi 
                  पुस्तक का साइज :  
34 MB
                  कुल पष्ठ :  
623
                  श्रेणी :  
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२ जेन लक्षणावली
रत्तकरण्डक (१२) में प्रकृत कांक्षा के विपरीत अनाकांक्षा या निःकांक्षित अंग के लक्षण में कहा
गया है कि जो सांसारिक सुख कर्म के अधीन, विनह्वर एवं दुख का कारण है उस पाप के बीजभूत सुख
में आस्था न रखता--उसकी स्थिरता पर विश्वास न करते हुए अभिलाषा न करता-- इसका नाम निः-
कांक्षित है। इससे यह फलित हुआ कि ऐसे सांसारिक सुख की इच्छा करना, यह उक्त कांक्षा का लक्षण
है ! भगवती आराधना की विजयो, टीका (४४) में श्रासक्ति को कांक्षा कहा गया है ॥ आगे इसे स्पष्ट
करते हुए वहां यह कहा गया है कि द्येन, त्रत, दान, देवपूजा एवं दान से उत्पन्न पुण्य के प्रसादसे मेरे
लिए यह कुल, रूप, घन श्रौर स्त्री-पुत्रादि अतिशय को प्राप्त हों; इस प्रकार की जो अभिलाषा होती है
उसे कांक्षा कहा जाता है। तत्त्वार्थंवातिक (६, २४, १) में निःकांक्षित अंग के स्वरूप को प्रगट करते
हुए कहा गया है कि उभय लोक सम्बन्धी विषयोपभोग की आकांक्षा न रखना अथवा भिथ्या হহানান্ববাঁ
की अभिलापा न करना, इसे निःकांक्षित अंग कहा जाता है। तदनुसार उभय लोक सम्बन्धी विषयोपभोग
की इच्छा को अथवा मिथ्या दर्शतों के ग्रहण को अभिलाषा को कांक्षा अतिचार समभना चाहिए |
इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में जहां केवल विषयोपभोग की आकांक्षा को कांक्षा का लक्षण
निदिष्ट किया गया है वहां उसकी वृत्ति में हरिभद् सूरि और सिद्धसेन गणि ने इस लोक व परलोक
सम्बन्धी धिपयों की इच्छा के साथ विकल्प रूप सें पुर्वोक्त झरगमवचन के अनुसार विभिन्न दर्शनों के
अहण की अभ्रभिलापा को भी कांक्षा कहा है। जसा कि ऊपर संकेत किया गया है, उक्त प्रागम वाक्य
श्लावकप्रज्ञप्ति की ८७वीं गाया के श्रन्तर्गत उपलब्ध है जो किसी अरन्य प्राचीन ग्रन्थ का होना चाहिए ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है तत्त्वार्थंवातिककार को कक्षा के लक्षण में विषयोपभोग की
इच्छा प्रौर दशंनान्तरों के ग्रहण की इच्छा दोनों ही श्रमिग्रेत रहे हैं । श्रमुतचन्द्र सुरि को तत्त्वार्थवातिक-
कारके समान कर्ता के लक्षण स्वरूप इस भव में वेसव आदि की अभिलापा तथा पर भव में चक्रवर्तीं
आदि पदों की अ्भिलापा के साथ एकान्तवाद से दूषित अन्य सम्प्रदायों के ग्रहण की अभिलापा भी
श्रभीष्ट रही है (पु. सि. २४) । उक्त त. वा, का अनुसरण चारिच्रसार (पृ. ३) में भी किया गया है ।
उक्त त. भा. को छोड़कर जहां प्रायः श्रन्य दवेताम्बर ग्रन्थकारों को कांक्षा से विभिन्व दक्शनों
का ग्रहण श्रभीष्ट रहा है वहां अधिकांश दि. ग्रन्थकारो को उससे विपयोपभोगाकांक्षा भ्नभिप्रेतं रहीहै।
श्वे. ग्रन्थों में इसके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-- देशकांक्षा और सर्वंकांक्षा | देशकांक्षा से उन्हें बौद्धादि
किसी एक ही दर्शन की अभिलापा अभिप्रेत रही है (देखिए दशवे. नि. १८२ की हरि. वृत्ति, श्रा.
प्र, की टीका ८ और घमंविन्दु की चुत्ति २-११ आदि) ।
गचछ व गण--घबला (पु. १३, पृ. ६३) के अ्रतुसार तीन पुरुषों के समुदाय का नाम गण श्रोर
इससे श्रघिक पुरुषों के समुदाय का नाम गच्छ है। मूलाचार की वृत्ति (४-३२) में तीन पुरुषों के
समूदाय को गण और सात पुरुषों के समुदाय को गच्छ कहा गया है। तत्त्वा, भाष्य की सिद्धसेन विर-
चित वृत्ति (६-२४) व योगशास्त्र के स्वी- विवरण (४-६०) में एक आचार्य के नेतृत्व में रहने वाले
साधुओं के समुहु को गचछ कहा गया है ।
सर्वार्थसिद्धि (६-२४), तत्त्वार्थधिग म भाष्य (६-२४) और तत्त्वाथंवारतिक (६, २४, 5)
भ्रादि के ्रनुषार स्थविरों की सन््तति को गण कहा जाता है। श्रावश्यक नियुक्ति (२११) की हरिभद्र
व मलयगिरि विरचित वृत्ति के अनुसार एक वाचना, श्राचार व क्रिया में स्थित रहने वालों के समुदाय
का नाम गण है। ओपपातिक सूत्र की भ्रमय. वृत्ति (२०) ग्रीर योगज्ञास्त्र के स्वो. विवरण. (४.९०)
में कुलों के समुदाय को गण कहा गया है ।
ग्रन्थि--विज्ञेपावश्यक भाष्य (११६३) में ग्रन्थि के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया
है कि जिस प्रकार वृक्ष या रस्सी की कठोर व सघन गांठ अझतिशय दुर्भे्य होती है उसी श्रकार जीव का
जो कर्मेजनित राग-देपझूप परिणाम अतिशय दुर्भेच होता है उसे उक्त ग्रन्धि के समान होने से ग्रन्वि
कटद्दा गया है । जब तक इस ग्रन्यि को नहीं भेदा जाता है तब तक जीव को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता 1
 
					 
					
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