भारत के प्राणाचार्य | Indian Masters Of The Science Life
श्रेणी : भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
38 MB
कुल पष्ठ :
926
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पं. रत्नाकर शास्त्री का जन्म 29 जुलाई 1908 को भारत में इटावा जिले (U.P.) के अजीतमल में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री रामकृष्ण आर्य था जो एक सुधारक और देशभक्त थे। इसलिए, उन्होंने 5 साल की उम्र में युवा रत्नाकर को वृंदावन में गुरुकुल विश्व विद्यालय में पढ़ने के लिए भेजा, क्योंकि यह भारतीय शिक्षा पद्धति पर आधारित एक संस्था थी और अंग्रेजी के लिए मैकॉले के मानसिक दास बनाने के लिए डिज़ाइन की गई भ्रामक ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के खिलाफ थी।
पं। रत्नाकर जी ने उन्नत आयुर्वेद में सम्मान के साथ गुरुकुल से स्नातक किया। यह गुरुकुल में इस समय था, कि उनकी प्रोफेसर उमा शंकर दिवेदी ने उन्हें आयुर्वेद के इतिहास पर
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना ड़
साहित्य नहीं है ।” यह कहना मिथ्या है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत के प्राचीन
साहित्य को मैं जितना ही देखता हूं, वह इतिहास के गौरव से ओतप्रोत है। भारतीयों
की भाषा में इतिहास है, धर्म में इतिहास है, त्यौहारों में इतिहास है, कला में इतिहास
है, यहां तक कि भूगोल और खगोल में इतिहास हैं। घरों में बच्चों की कथा और
कहानियां भी इतिहासमय । इतिहास ही भारत का धर्म है। कैसे मान लिया जाय कि
भारतीयों ने इतिहास की उपेक्षा की ?
आज के अस्तव्यस्त ग्रन्थों, भग्नावशिष्ट प्रस्तरों और जीर्णशीर्ण मन्दिरों से यह
स्पष्ट है कि भारतीयों का ऐतिहासिक विवेक कितना उच्च था। उसे आक्रान्ताओं ने नष्ट
किया, भस्म किया, और काटछांटकर कुरूप कर डाला, ग्रन्थ में दिग्ने गये चित्र यह स्पष्ट
करेंगे। हमारी ऐतिहासिक प्रवृत्ति को इतना कुचल दिया गया कि हम अपने इतिहास के
प्रति जागरूक ही न रह सके। आक्रान्ताओं ने राजनैतिक अनैक्य इतना फैलाया कि एक
प्रान्त दूसरे प्रान्त के इतिहास से ई्प्यां कर उठा । सच तो यह् है किं गुलामों के इतिहास
का गौरव नहीं रहता । हम उसे रखना चाहें तो हमें अपने को पूर्वजों की भांति स्वांधीन
और पराक्रमी बनाना होगा | हम ऋग्वेद का यह आदेश ही तो भूल गये--
प्रेता जयता दरा उग्रा व: सन््तु वाहव:।
अनाधृष्यायथासथ 1
कौटिल्य ने ठीक कहा था “शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र-चिन्ता प्रवत्तते ।* ईसा
की 7वीं शताब्दि के बाद तुर्कों, शकों, अरबों और ईरानियों के आक्रमणों ने भारत की
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक वस्तुओं का विनाश ही नहीं किया, प्रत्युत अनेक गन्धी
परम्परायें भी प्रचलित कीं, जिससे मनुष्य की दिव्य शक्तियों का हास और पाशविक
प्रवृत्तियों का विकास हुआ ।
बौद्ध आन्दोलन भी लोक संग्रह का शत्रु था। सबको भिक्षु बनाकर साहित्य,
संगीत, और कला के विकास से पराज्भमुख करने वाले आन्दोलन का जो परिणाम हो
सकता था वही हुआ | स्त्री और पुरुष, समाज निर्माण के दो पक्ष हैं। हम सृष्टि नियम के
विरुद्ध उन्हें अलग-अलग नहीं रख सकते । उनके वीच मे भिक्षु संघ की दीवार खड़ी करके
बैरागियों की दुनियां बसाना अवैज्ञानिक नहीं तो और क्या है ? इस भिक्षु समाज के नियम
यही थे--जों कविता लिखे उसे दुष्कृत का दोप लगे । जो गाये-वजाये उसे दुष्कृत । जो
चित्र बनाये उसे दुष्कृत । जो लादी-डंडा चलाये उसे दुष्कृत । जौ युद्ध को बात करे उसे
दुष्कृत । जोस्त्री के प्रति आस्था रवे उस दुष्कृत ।* आचायं अदवघौप ने भगवान बुद्ध
का चरित काव्य लिखा, तो उन्हें कविता लिखने के लिये क्षमा मांगनी पड़ी । ताशाकन्द
से लेकर वलोचिस्तान तक सैकड़ों भिक्षुणी संघों की लाखों भिक्षुणी युवेतियां तुकं, शक,
अरब और यूनान पहुंच गईं, क्योंकि उनके स्त्रीत्व का आदर भिक्षु संघ ने नष्ट कर दिया ।
यह राष्ट्र का विधघटन ही था। भारत में शेष रहे भिक्षु और भिक्षुणियों का जो पतन
]. आगे बढ़ो, विजय करो, अ्रपनी भुजाओों को ऊंचा रखो । ताकि शत्रु तुम्हे पराभूत न कर सकें।
2. शस्त्र से रक्षित राष्ट्र में ही शास्त्र चर्चा संभव है ।
3. विनय पिटक देखिये ।
User Reviews
VandanaGovind
at 2020-01-22 15:19:45"Amazing and deep study of Ancient Ayurveda and its scientists "