महाभारत के कुछ आदर्श पत्र | Mahabharat Ke Kuchh Aadarsh Patr

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Mahabharat Ke Kuchh Aadarsh Patr by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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`~ আজ ९७ अपने उघ कटस्पसने समेट छेते -£ैं और धुनः शामझुन्दरझुपर्म उनके सामने प्रकट दो जाते हैं (११1५१ ) | इस प्रसार श्रीकष्णने अर्जुनको যহ प्रष्यक्ष करके दिला दिया कि जो उनके सामने त्रिमुवतरमोहन श्यामपुम्दरके रूपमें सदा प्रकट रहते थे, जगत भी वें ही बने हुए हैं और वे द्वी जगतुसे परे रहकर उसे बनातेविगाइ़ते रहते हैं। उन्हें इस प्रकार यपार्थरूपमें जानना, देखना और पाना---उनकी मक्तिमे ही समग्मद है (११ ५9 ) | अतएव मगयान्‌ अन्तमें अर्शुनकों यही उपदेश देते हैं कि «यू मेरा दी बिन्तत कर, मुझसे ह मेम कर, मेरा दी मजन-ूजन कर तया জীন मर्ता छोडकर मेप ह शरणमे आ जा (१ ८।६५-६६)] यही मगय्रीताका अन्तिम उपदेश है । श्रीकृष्णका भी ঘানি खर्पर वदी है, ज मगव्वतमे ग्यक्त इ दै ] ই অত समतीत, टस्य भामासे भी मे, पूर्त पर्योचम है (१५ । १८) । उनका यह्‌ रप धनन्य भावस उनके शरण नेसे ्ी समस्मे भता है अतः श्रीकृष्ण क्या हैं, यह समझनेक्ते लिये हमें अपनी धुद्विका अमिमान छोड़कर उनको शरण ग्रहण करनी पढ़ेगी । उनके शरणापनन होनेपर अजजुनकी माति वे अपता खरूप खयं हमें समझा देंगे । तब अर्जुनके ही खरें लर मिटाकर हम कद उठेंगे--- श्रमो | तुम्दारी कपासे मेरा अज्ञान दूर दो गया, पुम्द्ारा वास्तविक खरूप मेरी समझमें आ गया । अब मैं सन्देहरद्वित द्वोऋर जो तुम यो, वटी भो मूँदकर करूँगा? ( १८ | ७३ ) । इसके बाद मारे दयाय जो कुछ मी चे होगी, वहं प्रमुप्रेतित दी होगी। हम म० आ० २--




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