सहजानन्द सुधा [पार्ट-1] | Sahjanand Sudha[Part-1]

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Sahjanand Sudha[Part-1] by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“विना वे अपनी आत्स-साथना मे ही लीन रहते थे । ज्वर, सर्दी तथा अथं जेसे रोगो की कृषा होती ततव कम॑ भोगने की दृष्टि 'से उनका हार्दिक स्वागत करते ओर ओपधादि नहीं लेने का आगह'रखते । उदय में आये हुए कर्मो को खपाकर किस प्रकार शीघ्र स्वधाम-सोक्ष प्राप्त क्रिया जाय | यही उनका ध्येय था तीत्र व्याधि के उदयकाल में भी वे ভক্ত ध्यान समाधि में लीन आत्मस्थ रहते । जिन्हे देह्ाध्यास न हो और आत्मा की अलौकिक ज्योति जगमगाती हो, उन्दे शारीरक प्रति लक्ष ही कहा से हो सकता है । सं० २००७ में अश रोग का कष्ट वढ़ गया। देशी प्रयोग द्वारा बाह्योपचार से अर्श-मस्सों का आपरेशन किया गया । किंतु प्रभु पर वो वेदनीय कर्मं कौ चिर छपा थी, आपरेशलन से व्याधि को प्रोत्साहन मिला ओर उल्टियां चालू दह्ये गई । किन्तु आत्म- रसण में तल्लीन होने के कारण तथा शरीर के प्रति निमोंदी चृत्ति से ओपोधोपचार के उपयुक्त अभाव के कारण अशक्ति वढती ही गई, क्‍योंकि दिन भर में २०-२५ उल्टियाँ हो जाती, किन्तु ठाम चोविहार का नियम होने से उल्टी होने पर कुल्ला तक करने के लिए भी आपने दूसरी वार सुंह मे पानी नहीं डाला । गुरुढेव इस प्रकार के दृढ़ निश्चयी थे | सं० २०२७ के पयू पण पर्व में देह- च्याधि का ख्याल न कर भक्त मण्डल को प्रवचन द्वारा अपनी अदभुत वाणी मै तदधीन कर देते । व्याख्यान के समय उनका शरोर .के प्रति लक्ष नहीं रहता । व्याख्यान समय पूणं होने पर १




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