कांगड़ा | Kangada

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Kangada by महेंद्रसिंह रंधावा - Mahendra Singh Randhava

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ कागड़ा सक्ती है, ओर उन्नति कर सक्ती है । ध्यान केवल इतना ही रखा जाना चाहिए कि भाषा का निजी स्वरूप न विगाड़ा जाय । आज़ाद होने के बाद हम अपनी बोली, कल्ला और लोक-गीतों में साहित्यिक और सास्कृतिक दृष्टि से नई-लई विशेषताएँ देख रहे है। पश्चिमी सभ्यता का भूठा रौब कम हुआ है | तथाकथित सभ्य समाज के नीचे दवी हुईं हमारी बोली और कला फिर से साँस लेने लगी है। इस रौब-तले हमारी हर अच्छी चीज़ की बेकद्री हुई थी। हमारी बोली, लोक-गीत, कढाई और चित्र-कला गँवारू ही समझे जाते रहे । अब फिर से इन चीज़ों का मूल्य मालूम पड रहा है ! हम इन्दी दवी पडी, घूल-मिट्ठी मे रौदी वस्तुओं को उठाकर, झाड-पोछकर, सँजों रहें है। मेरी यह पुस्तक भी अन्य रचनाओं की तरह इस ओर एक प्रयास है। इस पुस्तक के पहले भाग में मैने बताया है कि ग्राम्य जीवन और प्रकृति की सुस्दरता ने मुझ पर कितना ,प्रभाव डाला है। ग्राम्य जीवन की इसी सादगी और सुन्दरता की झलक मैने कागडा-कला के चित्रों मे देखी | मैंने यह भी बताया हैं कि कागड़ा-कला के चित्रों से मेरा परिचय लाहौर म्यूजियम में किस प्रकार हुआ, और लद॒न में कैसे मेरे हृदय पर इनका और भी गहन प्रभाव पडा। इसके बाद, भारत लौटने के कुछ वर्षो वाद एक बगाली कला-पारखी के तीखे पत्र ने भी मुझ पर गहरा असर डाला । कई साल उत्तरप्रदेशमे स्हकर मै १६९५४५८ मे जब पजाब वापस लौटा तो १६५१ मे, मेरी, कागड़ा घाटी से जानकारी हुई और मैंते कायडा घाटी की कई यात्राएँ की। इस पुस्तक में मेरी उन यात्राओ का उल्लेख है, जो मैने १६५१ से १६६१ तक की । मार्च १६५४ और अप्रैल १६६० की यात्राओं मे कागडा-कला के पारखी और योग्य विद्वान्‌ मिस्टर डबल्यू ० जी० आचर मौर मारत कै प्रसिद्ध उपन्यासकार मूल्कराज आनन्द मी मेरे साथ थे । इते यात्राओ मे मैंने कामडा के लोगों, किश्षातों और गहियों को देखा। उनके बारे से मैंने पुस्तक में जानकारी दी है। घुस्तक के दूसरे भाग में कांगड़ा के ३०० से अधिक लोक-गीत है, और उनके साथ ही कागडा की प्रसिद्ध लोक-कथा “হাঁ জী फुलमो' है । इसके अतिरिक्त मैंने कागडा के खास शब्दों के अर्थ भी दिए है ताकि पाठकों को उनकी जानकारी हो और वे इनमे रस ले सके । इस पुस्तक की तैयारी में बहुत-से मित्रो ने मेरी सहायता की है। इनमे से मैं गुलज्ारसिह सधू और कर्त्तारसिह दुग्यमल का हृदय से आभारी हूँ। लोक- गीतों का संग्रह करने मे बहुत से कांगड़ा-प्रदेशी सज्जनों ने मुझे सहयोग दिया। इनमें से मगतराय खन्ना, कैलाशनाथ रैणा, श्रुतिप्रसाद, बेनीप्रसाद, राजेंस्वर करायस्थ, बेलीराम आजाद और सत्या झर्मा के ताम विज्येप रूप से' उल्लेखनीय | ५ यह पुम्तक भरी उस खोज का परिषामदैनोर्मने कागडाघारी की कला




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