मेरे संस्मरण | Mere Sansmaran

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Mere Sansmaran by गणेश वासुदेव मावलंकर - Ganesh Vasudev Mavalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुनविवाह की चर्चाए ७ मैरी पत्नी ने देहत्याग किया । हम सबके दुख का कोई पार नही था । ईदवर की इच्छा के सामने मनुष्य का क्या वरा ? कितु इस दुख मे समा- धान की बात सिर्फ यही थी कि अपने वस भर हमने सबकुछ कर लिया था । मेरे जीवन का एक अग पूरा हुआ । दूसरे दिन हम सव लोग बवई वापस आ गये। मेरी ससुरालवाले बंबई में ही रहते थे। मेरी मा को श्रहुमदावाद जाना इतना भारी प्रतीत हुआ कि उन्होने गरमी भर बंबई में ही अपनी बहत (मेरी मौसी और मेरी पत्नी की चाची) के साथ रहने का निश्चय किया, इसलिए हम सब बवई में ही रहे । मैं जव-तब अहमदावाद हो भ्राता था । ३३ पुनविवाह की चर्चाएं पत्नी की मृत्यु के बाद के लगभग तीन वर्षो में मै साव॑जनिक जीवन मे गांधीजी के गाढे सपर्क मे आया था । इसलिए गुजरात में गावीजी के पथ- प्रदशन में चलनेवाले कामो में एक भी काम ऐसा वही था, जिससे गुज- रात-सभा के मत्री के रूप में भ्रथवा दूसरी तरह, प्रत्यक्ष या श्रप्रत्यक्ष, पूरी तरह से श्रथवा थोडे-बहुत भ्रश मे ही मेरा वास्ता न रहा हो । मेरे मन में लोक-सेवा की भावना काफी प्रवल थी। असली समय पर गृहस्थी उजड गई भर प्रकेली कन्या, पुत्र का सर्वथा अभाव---यह सब सोचकर मेरी माता और मौसी को ही नही, प्रत्युत मेरी माली को भी यही लगा कि मुझे फिर से विवाह करना ही चाहिए। उन सबका यह भी विचार था कि यदि मैं बिना विवाह किये इसी तरह स्वतत्र रहा, तो गाधीजी के सघ में शामिल होकर निरा साधु वन जाऊंगा यह बात नहीं थी कि मेरी स्वर्गीय पत्नी के प्रति उनके भन में प्रेम न हो, कितु वे मेरे भविष्य के सवध मे সঘি্ধ चितित थी। हिंदू भावना के अनुसार पुत्र के द्वारा ही वश चालू रहता है, इसलिए विवाह करना चाहिए, यह इन सबकी दृष्टि ते सही श्रौर सौधा मार्ग था । हमारी, जाति में रुपये-पैसे की दृष्टि से सुज़ो निव्यंतनी और शिक्षित वर बहुत कम मिलते थे, इसलिए विवाहन्योग्य




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