अथर्ववेद भाष्यम् नवमं काण्डम् | Arthavved Bhashyam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शू० ९ [ ४४४] नवमं कारंडस्‌ ४५० ( १९६८७ ) भावार्थ-मयुष्य उत्तम विद्या पाकर संसार के छधार से झपना जीवन सफल करके विद्वानों ओर गुर जनो मे प्रतिष्ठा पादं ॥ १५॥ यह भन्जत्र ऋग्वेद में है-१ | २६। २४७ | और पहिले आशुका है-झ० ७ | ८81 २॥ यथा मधं मचक्रत: सं भर॑न्ति मधावचि । एवा म उदशिविनुा वच आत्मनि प्रियताम्‌ ॥ २६ ४ है | है ক यथा) । मध्‌. । मध्‌ -कूतः । ससू-भरंन्ति । सयत । अधि ॥ रव भै । दिवन ! वचेः । आत्मनि धियतास्‌ ॥ ९६५ भाषाथ--( यथा ) जैसे ( मधुरुतः ) ज्ञान करने वाले [ आचार्यं लोग ( मधु ) [| एक ] ज्ञान के ( मथो ) [ दूसरे ] ज्ञान पर (अधि ) यथावत्‌ ( संभरन्ति ) भरते जति ह ¦ (पव ) वैसे दी, ( अरिवना) हे [ कार्यङ्शल ] सादः पिया | (मे श्चात्मनि) भरे चात्मा मे [ विद्या का] ( वर्च; ) प्रकाश ( धिया ) धय जाये ॥ १६॥ जाक --मलुष्य उत्तम आचाये' के समान एक के ऊपर एक अनेक विद्यायै का उपदेशं करके श्चिष्यौ को श्रेष्ठ बनावे' ॥ १६॥ इस फल्ण का उचर भाग झा चुका है--मं० ११ ॥ यथा मक्षा हुदं सर्च न्यझन्ति मधावधि। .. < (कः € $ ¢ इवा भं अश्विना वच्‌ स्वेजौ बलमेज॑श्च फ्रियताम्‌ १७ य्था । मदः । दस्‌; मधु । नि-दञ्चस्ति । सद्धा । अधि ॥ ख्व के । शश्वन्‌ । दच॑ः। तेज॑ः । दल्‌ । औओज: | च॒ । জিতল ॥ २७ ४ भाषाय--( यथा ) जैसे ( मक्षाः ) संग्रह करने वाले पुरुष [ अथवा १६--( मधु ) शानस्‌ ( मशुकृतः ) वोधकर्तार: | आसाय ( संभररि | संगृ धरन्ति ( मधो ) ज्ञाने ( अधि ) यथावत्‌ । अन्यत्‌ पूर्धवत्‌-म० १९॥ ९अ--( मन्ता: ) सक्त संघाते रोषे च-अच्‌ । संग्र दीतारः पुषा भ्रमराद्यः




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