संस्मरण | Sansmaran

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Sansmaran by बनारसी दास चतुर्वेदी - Banarasi Das Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० संस्मरण हैं । श्राप निश्चय जानिये कि इसमें मेरा एक माहा भी स्वाथ नहीं हं । मे तो यही चाहता हं कि भगवान्‌ने श्राप जेसी तबियतका एक कवि उत्पन्न किया है, तो उसकी कविताका कुछ विकास भी हो, यों ही न कुम्हिला जावे । यदि आप कुछ लिख जावेंगे, तो दो सो वर्ष बाद शायद श्रापके नामकी पूज्ञा तक हो सकती है । एक भारतमित्र के नातेसे श्रापसे पत्र-व्यवहार चलता हें। यह नाता श्राप तोड़ते हे, भगवान्‌ जाने श्रबकी टूटी फिर कब जुड़े । कोई श्राठ साल बाद आपसे फिर पत्र-व्यवहार चला था, श्रब बन्द होकर न जाने कब खले ! मं नह जानता, कि श्रब श्राप पत्र-व्यवहार करेगे या नहीं । इससे कछ विनय करता हू । (१) हर बातमें शंकित और उदास मत हुआ कीजिए । (२) कोई कुछ श्रालोचना करे, तो उसकी परवाह मत कीजिए । (३) श्रालोचकोंकी फूल बातोके उत्तरकी ज्वरूरत नहीं हं । (४) चित्तको हर मामलेमें प्रसन्न रखिए--बात-बातमे नाराज्ञी भ्रौर चिद्‌ भली नहीं । (५) आपका काम सुन्दर कविता बनाना हे--छेड़-छाड़ का उत्तर देना नहीं । (६) दासों और भित्रोपर विहवास रखना । (७) जब तक जीवन ह्‌, जीना पड़ेगा । सो प्रसन्नतासे जीना चाहिए । उदासी क्यों ? दास बालमुकन्द गुप्त । द्विवेदीजीसे पाठकजीका पत्र-व्यवहार प्राय: श्रंग्रेज़ीमें हुआ करता था । शिमलासे ३०।८।०३ को लिखी हुई पाठकजीकी एक चिट्ठीका कू अ्रंश सून लीजिए--




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