भारत निर्माता २ | Bhaarat Nimraataa 2

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Bhaarat Nimraataa 2 by कृष्णा वल्लभ द्विवेदी प- Krishna Vallabh Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[नानान्ानागागानानालागानानागानानागागागागानागागागागागानागात।वागानागानतानावारगागाना तत्‌] [51 2॥7॥5॥[[515॥[त][51[51 717] ][7]5॥[>॥[त][त[|[०॥ तठ] नन नत] ना तना त|न] गाठ गा नान गान नना तना त = 5] आलोचना की एक पाट्यपुस्तक-सी बन गई ! इस ग्रथकी प्रस्तावनामे उन्होने खुलकर इस बात की घोषणा कर दी थी कि भारत का वत्त॑मान शासन-तत्र इस देश के लिए तो घोर निरंकुशता- पूर्ण और विनाशकारी है ही, पर साथ ही साथ स्वयं ब्रिटेन के लिए भी वह अशोभनीय और आत्मघातमूलक है ।' सच तो यह था कि उन्हें विदेशी नौकरशाही की वह्‌ स्वेच्छाचारितापूणं नीति इतनी असह्य हो उटी थी कि इन्हीं दिनो पेरिस के एक पत्र-संवाददातासे भेट करते समय उनके अंतस्तल से निम्न रोषपणं वाक्य निकल पड़े थे--'हम लोगो के साथ एकदम गुलामों का-सा बर्ताव किया जाता है और सबसे भद्दी बात तो यह है कि हमारे ये मालिक हमारे अपने देश के नही बल्कि सात समुदर पार के विदेशी है ! ' जब सन्‌ १९०५ ई० में एम्स्टडंम में होनेवाली सोशल डिमाक्रेटों की एक अंतर्राष्ट्रीय परिषद्‌ में भारत के प्रतिनिधि की हैसियत से उन्होने भाग लिया, तो वहाँ भी जोरदार छब्दों में अपने देश के वत्तमान शासनतंत्र के प्रति निन्दा का एक प्रस्ताव रखकर अस्सी वषं को उस वृद्धावस्था में भी उन्होंने টা भरी थी कि सब कोई सुनकर दग रह गए थे ! तीसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष तब आया सन्‌ १९०६ ई० का कलकत्ता का वह॒ मशहूर कांग्रेस-अधिवेशन, जब कि देश ने तीसरी बार राष्ट्रपति का आसन प्रदान कर, इस वृद्ध लोकनायक के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा प्रकट करते हुए, पुनः राष्ट्र की पतवार सँभालने के लिए उसका आह्वान किया । ओर केवल उसी का यह बूता भी था कि उस विषम सकट की घड़ी में काँटों के उस मुकुट को फिर से पहनना उसने स्वीकार कर लिया ! यह वह समय था, जबकि कजंन की अदूरदर्शी दमननीति के कारण देश के राज- नीतिक वायुमंडल में एक अभूतपूर्व क्षोभ की भावना का सचार हो चुका था। फलत: हमारी राष्ट्रीयता में एक मार्मिक उद्रेलन, एक उग्र भावावेश का ज्वार उमडने लगा था ! यह था बंग-भंग के कारण समुच्छवसित स्वदेशी-आन्दोलन और विदेशी-बहि- ष्कार की तूफानी आँधी का जमाना, जब कि सन्‌ सत्तावन की महाक्रांति के बाद भारतीय पौरुष विदेशी शासन-सत्ता के विरुद्ध तनकर खड़ा होने के लिए मानो खम ठोककर पहले-पहल मंदान में आया था ! इस समय तक कांग्रेस के मंच पर 'गरम' ( उग्र क्रान्तिकारी नीति का समर्थक) और नरम' (उदार- नीतिधर्मी ) ऐसे दो विभिन्न दल बन चुके थे । उनके मतभेद की खाई दिन-पर-दिन इस प्रकार बढ़ती- चढ़ती चली जा रही थी कि हमारे राजनीतिक आँगन में एक गृहयुद्ध का-सा वातावरण पैदा हो गया था ! ऐसी विषम संकट की घड़ी में सिवा दादाभाई के दूसरा कोई ऐसा व्यक्तित्व राजनीतिक क्षेत्र में उस समय न था, जो कि दोनों दलों को साथ लेकर कांग्रेस की नौका को उस तूफान के वातावरण में से सकुशल पार लगा ले जाता । वस्तुतः उन्हीं का यह प्रभाव था कि कलकत्ता का वह अधिवेशन उस पारस्परिक संघर्ष का कुरुक्षेत्र बनने से बाल- बाल बच गया, जो कि अगले ही वर्ष सूरत की तूफानी कांग्रेस में आखिर अपना उम्र रूप प्रकट किए बिना न रह सका ! पहले-पहल 'स्वराज्य' का मंत्रोच्चार इसी ऐतिहासिक अधिवेशन में पहले-पहल उस महत्त्वपूर्ण शब्द 'स्वराज्य' का कांग्रेस के मंच पर से उन्होंने मंत्रोच्चार किया, जो कि आगे चलकर हमारी राजनीतिक आकांक्षाओ का घ्रुव-बिन्दु वन गया ! साथ ही एकता की आवश्यकता की आवाज बुलद करते हुए इस देश के दरिद्रनारायण की मुक्ति के प्रशन पर भी उन्होने हमारा ध्यान खीचा, जिसका कि उल्लेख पिछले पृष्ठों मे स्वयं उन्हीं के शब्दों मे हम कर चुके है । परन्तु उनका अपना कायं मानो यही आकर समाप्त हो गया ¦ क्योकि अब भारतीय राष्ट्रीय जागरण को एक मंजिल-उसकी बाल्यावस्था-किनारे आ लगी थी, और दूसरी मंजिल के आरंभ होने की अब तेयारी होने लगी थी । अब पग-पग पर नरमाई की नीति से काम लेनेवाले मांडरेटों के लिए क्रमशः नेपथ्य ही की ओट मे चिसक चलने का समय आ पहुंचा था । कारण, हमारे राजनीतिक क्षितिज पर अब प्रखर रूप से तिलक ओर लाजपतराय जसे उग्र लोकनायको का व्यक्तित्व अधिकाधिक निखरता दिखाई देने लगा था। उधर दादाभाई के लिए तो वस्तुतः अपनी जीवनलीला के भी पटाक्षेप की घड़ी अब []त॥०]०]त][त][ठ०॥5]2॥2॥2॥|7॥[7|[21215॥[71[5॥2॥० 171 5॥1॥[5[5॥[०॥[०॥[॥ 555००] ०[ठ [519 7] 5 नत [2151 त्‌] ्‌|21/31/221/51/21/21/21/21/51/21/51/21/21151/1/51/21/31/21/51121/21/151/21//21/21/51/21/121/51/131/11/21/131/121/131/11/131/1 भारत-निर्माता তে




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