सरल जैन धर्म्म - भाग 4 | Saral Jain Dharam - Bhag 4

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Saral Jain Dharam - Bhag 4 by भुवनेंद्र - Bhuvnendra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about भुवनेंद्र - Bhuvnendra

Add Infomation AboutBhuvnendra

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
(& ) 1... इहहीं पाँचा परमेष्ठियाोका! णम्रेकारमस्तपे नमस्कार । किया गया है। तीर्थंकर आदि अरहन्त कह्दे जाते हैं । इन्हाने शानावरण, दर्शनापरण, मेहनीय ओर अन्तराय इन चार घातिया कर्मी का नाश किया ओर सिद्ध परमेष्टी आटे! कर्मोका नाश फर देते छूं। इसलिये अरदते की अपेक्षा सिद्ध भगवान, अधिक पल्य हाने पर भी श्रहन्त भगवान्‌ के दाया ससार का साक्षात्‌ उपकार देता है। इसल्यि पदतले ददीफोा नमस्फार तिया আলা ই। छव सत्तेपसे इनका स्यरूप वताते हे - 2 श्ररहव-जे ऊपर कदे हुये चार घातिया कमि नएक्र चुके हे, अनत दशं 7, श्रनम्तक्ता 7, न-तसु्व और शन्तवीय सहित दा, श्रस्थि, मजा श्वादि सात धातुरहित _ परमादारिक शगीर धारण करते हा ओर ज मे मरण मादिं अठारह दोवेषसे रदित दा उह श्ररहत परमेष्ठी फते टं । इनमें ३७ भतिशय ( १० जम फे, १० ज्ञान फे ओर १४ देवहत ), म् प्रातिहाय्य और ४ अनतचतुष्टय इस प्रकार दगुण देते इ । २ पिद्ध ये कानायरण आदि আত क्मौषका লাহা चरते हं, लक श्रौर अलेककेा जानने देखेयले दते है ओर देएरद्धित द्वाकर भी पुरुषरें आविम आकारके हते हैं। येही सिद्ध परमेष्ठी के जते है]




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now