तुलसी शब्दसागर | Tulsi Sabdha Sagar

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Tulsi Sabdha Sagar by भोलानाथ तिवारो - Bholanath Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६1 अधी-(स०)-पापी, भ्रधर्मी। उ० लाले पाले पोष तोपे आलसी अभागी জী) (দি ২২২) श्रचचल-{स>)-चचलता रदित) स्थिरः शात । उ० भु विलोचन দ্যা গাব । (मा० १।२३९।२) प्रचंमव-(ख० यमयो -द्यद्मा, ास्ययं । उ० सुर सुनि स्यि चषभय माना । (मा० ६।७१।४) शअचभा-आरचर्य, वरज । श्रचरः ल ° श्चा चमन) -पाचमन फक, पी करफे। उ पैटि धिर मिक्षि तापसिहि) यदद पानि, फलु खाद्‌ । (স» इ1ण३) अ्रचरत-आचमन करते दी पीते ही | उ० जो प्मचर्दैत नरष मातरि तेद्‌ । (मा ०२।२३ १1४) शचवै-श्राच मन करे । श्रचगर রদ चपलता, नटखटी, शरारत, श्रत्याचार 1 3० 1 जो सरिका कन्चु थचगरि फरहीं। (मा० ২৩৩২) अचर-(स ०)-जो घल न सके, स्थाघर, जड़, ग्रचल | उ० अचर-चर रूप दरि सर्मंगत सर्घटा बसत, छति बासना धृप दीमै। তা ४७ अचरज-[स० ) श्रचमा, तश्नज्जुव्र ! ० यहुरि फहु फरनायसन फी-ट जो यचरत राम । (मा० १।११ ) अचरलु-दे० 'भचरज” | उ० भाजु हमहि यढ अचरशु लागा। (मा० २३८५) झजल-(स०)-$ पहाढ़, जो न चले, स्थिर, २ घिरस्थायी, सथ दिन रहनेवाला, टद, १ घावागमन से मुक्त, ७ स्थिर बुदि (3० ९ सरत की कुसल अचल रूयायो चलि दैः ! (० ६।५५) २ रघुपति पद परम प्रेम तुलसी यहु श्रचल नेम। (मि० 4 ९ ३ ोष् ्रचल जिमि जिय हरि पाह। मा० ४।१४।४) ४ प्रचल धर्किचन सुचि सुखधामा । মাও ২18২৬) श्रचलच्देरी-श्रचूफ निशाना लगाने याला रिकारी1उ° चिनद् धयल्रहेरी भ নাত २।१३२।२) श्रचलमुना-(स ०)-पर्यत হল হন पा्यदी । उ० श्रचल-सुता मम श्रदल वयारि फर डोल्ट १(पा० ६९) श्रजला-(स ०) -र्म्वी । अ्रजलु-दे० “अचल' । उ० उचफे उचकि चारि অনুজ भ्रयलु भो । (क० ४११) अचानक-सदसा, भकस्माव, बिना पूर्व सूचना के! उ० तुलसी कवि तून, धरे धनु घान, धानक दीटि परी तिर ভা । (ক, ২২২) अपार-(ंस» आचार)-१ णाचार, आचरण, व्यवहार, २ धर्म च्ययहार) ३ तरीका । उ १ स्यारथ-सदित सनेह सयः, रचि भ्रनुद्रत धवार ] (दो? ५४८) २ जे मद মাং धिकार भरे से अचार विचार समीप न जादीं। (फ० ७६४) थ्राचारप्रि चार-(स« झाचार विचार)-इन दो शब्दा पा भाज भी एक साथ प्रयोग मिलता है पर भर्थ यही होता है जो 'धाचार! का । धामिफ हृत्य, शौच, पूजा पाठ इत्यादि। अचाय-दे० अचार!। उ० $ अस प्रप्ट अथारा भा ससारा धर्म सुनिन्ष नहिं काया । (मा> ॥$८श छू) अचारू-दे+ 'अचार!। 5० ३ हुहें कुल गुर सय रहोन्‍्द भ्रघार्‌। (मा० १।१२३।४) चित (१}-{स०)-निर््विव, धिता रदित 1 रचिते (२)-(स० प्रपितय}- दै भ्मसिष्य | # 1 সী अजगर अचित्य-[स०)-१ जिसका चिंतन सभव न हो 1९ झतुलल, ३ चिता रहित, ४ आएशा स धिक) £ अकस्मात्‌ । 2 स०) १ अज्ञात, २ बेसुध, सक्षाहीन; ३े व्याकुल, ४ मूर्स, अज्ञानी, येसमझ, * अ्चेतन, जड़। उ० १ रावनं भाद्‌ जगा तव; कहा भसगु वेत 1 ( प्र० ७१) ই নহি चिप्र गुर चरन प्रयु चले फरि सयदि प्रचेत ! (मा० १।७६) ४ समु नहिं तसि पा्तपरन तय বি হইত धचेत । (मा० १३० क) % छोटे बडे जीव जेते चेतन अचेत ह । (ह० ६०) अचेता-दे० अचेतः । उ०२ घले जारं सय लोग पेता । (मा० २३२०४) श्रच्छ-(स अज्ष)-रार्ण का पुन, धषयङुमार । उ° द्म वरिमर्वुन कानन भान दसानन धानन भान निषटाते। (ह° 48) श्रच्छुकूमारा-(स° যা যদ फा पुत्र षय मार 1 उ० पुनि पज्यउ अच्छुकृमारा । (भा०९। १८४) श्रच्छत-(स० प्ररत) -भ्त, चावल । जो धत न षो । उ° ञ्च षुत श्रकुर ভীঘন लाजा । (मा० १।६४६।३) अच्छुम-(स० अक्षम)-असमर्थ, झ्योग्य, शक्तिद्यीन। उ० सयहि व सुखद प्रिय, अछुम प्रिय हितकारि । ०9 ७४ ग्रच्छर-(स°प्रषर)-¶ अरः क; खः ग भादि) २.जिसफा शाश न हो। ५१ ছকে হত मत्र पुनि लपर्दि सरिति अनुराग । भ १।१४३) अच्युत-(स०) $ णो गिरा म हो, २ दृढ़, झटत, ই अग्नाशी, ४ विष्णु और उनके थबतारों फा नाम। उ० ३े तज्ञ सर्य यक्षेश धष्युत्, विभो । (वि १९) श्र्ठत-(ख० घत)-१ धरत, चावल, २ जो इटान षो पूणं, २ रहते हुए, उपस्थिति में । उ० ३ नुम्दहि घद्धत फो यरमै पारा । (मा० १।२७४।२) अछोम-(स० अक्षोम)-गर्भीर, शांत, क्षोभ रद्दित, ग्लानि या আহীনা-ই* “জাম” 1 उ° चौर ती पुरह घीर घछोभा। (सा० १२७४४) श्रज-{स०)-१ जन्मा, जन्म रदित, २ रह्मा, ३ पिष ४ शिव, € फामदेव, ६ दशरथ के पिता का नाम, ७ यकक्‍रा, ८ साया, £ रोदिणी नत्र; १० मेध ।उ० १ क्ल निरपाधि निरयुन निरजन प्रह्म पम पयमेकमज निकार । (वि० १०) २ करता फो श्र আগার को, भरता को ष्रि जाम (स २७६) ४ घदसेसर सूल पानि हर झनघ घज मित भविदित एपभेपगामी ! (पि ४६) ও तदुपि न तजत स्वान अन्न पर ज्यों फिरत विपय अजुरागे। (ग्रि> ११७) ग्रजधामा-(स° चमधाम)-द्य- सोक । उ० पद्‌ पाता सीन धनयामा । (मा ९।१९१) अजद्दि-प्रज यो, रस्या पो । उ० ममक फर्‌ विरि मयु प्रवि ममक त्त हन । (मा० ७१२२ ष) झजगर-(स०)-१ एक प्रदार का यहुत मोटा घर्ष, २ ्ालसी धादमो । उ० १ पैट रदसि चनगर दव चाद । (मार ७१०७४)




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