समकालीन भारतीय दर्शन में मनुष्य और समाज की अवधारणा | The Concept Of Man And Society Incontemporary Indian Philosophy
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भी गृहस्थाश्रम से ही प्रकट हुये हैं। महाभारत में पाँच प्रकार के गृहस्थ के कर्म बताये
गये है।4 -- दूसरी स्त्री के साथ सम्पर्क न करना, घर और पत्नी की रक्षा करना, बिना
दी हुयी वस्तु न लेना, मधु का सेवन न करना और माँस न ग्रहण करना। स्वधर्म का
पालन और अतिथि सेवा गृहस्थ का परम कर्त्तव्य माना गया है।
गृहस्थ आश्रम के सम्पूर्ण कर्त्तव्यों को पूरा करने के बाद अर्थात् संसार के मोह
बंधन का त्याग करके वन की ओर प्रस्थान करना ही वानप्रस्थ है। वानप्रस्थी 50 से 75
वर्ष तक का जीवन इस आश्रम में व्यतीत करता है। इसका उद्देश्य यह है कि व्यक्ति
इसमें आध्यात्मिक उत्कर्ष करे और भौतिक इच्छाओं से छुटकारा प्राप्त करे।
जीवन के अंतिम भाग अर्थात 75 से 100 वर्ष का जीवन संन्यास आश्रम है।
मनु ने वेद सन्यास कौ भी चर्चा कौ है जिसमें सब कर्मो ओर कर्म दोषों को त्याग कर
निश्चित चित्त से वेदाभ्यास करता हुआ सब भार पुत्रों को देकर निश्चित भाव से घर
पर रहे । इस प्रकार कर्मो से सन्यास लेकर, आसक्ति रहित चित्त से आत्म-साधना में
संलग्न रहता हुआ पुरूष संन्यास के द्वारा पापों का क्षय करके परम गति को प्राप्त होता
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इस प्रकार मनु ने वर्णाश्रम व्यवस्था देकर समाज ओौर व्यक्ति दोनों के दायित्वों
की ओर संकेत किया है। वर्णो के दायित्व मेँ जहां एक ओर व्यक्ति के उत्थान को
देखा जा सकता है वहीं दूसरी ओर समाज के गठन, व्यवस्था ओर संचालन मे सुविधा
देखी जा सकती है । आश्रमो की व्यवस्था में भी व्यक्ति के दायित्वों को स्पष्ट किया गया
है ओर चारों आश्रमो मेँ मनुष्य के भिन-भिनन क्या कर्तव्य हँ इसका स्पष्ट उल्लेख
किया गया है। अतः सामाजिक ओर व्यक्तिगत जीवन को दृष्टि से वर्णाश्रम व्यवस्था का
गठन भारतीय समाज व दर्शन के लिये महत्वपूर्णं माना जा सकता हे।
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