सारन्धा | Sarandha

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Sarandha by राजेंद्र देव - Rajendra dev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सारन्धा तब गौरव थी जिसकी थाती वह स्वाभिसान की मद्माती উদ্ধত राज्य निभेय उनको धक्के देकर थी कराती) कितने ही मानी आये भृूप-- तज कर अपना नैतिक स्वरूप वन कर स्वजाति के लिये राहु- ढा रहे अनय थे बिविध रूप | कुल कीति-कौमुदी को ख्रो कर बेटियों और बहने दे कर-- इतराते थे सम्राटों के-- ये सभी सुर साले हो कर। अनिरुद्धसिंह इमको निहार कर॒ उठते नीरवे चौत्कार सम्मान भाव से भावित वें हो उठते पायल बार बार | कैसे सहते इनं बातों को मर्यादा पर इन धातो कौ वे बढ़ कर करते दमन सदा अरि के कठोर उत्तातों को। १५




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