जैन धर्म शिक्षावाली - भाग 2 | Jain Dharam Shikshawli - Bhag 2

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Jain Dharam Shikshawli - Bhag 2 by उग्रसेन जैन - Ugrasen Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4 ::“बखिता के,विचार को हृदय से. निकाल द्रो 1१५. ४३ ,> +; पाठ ५. करोष्‌. कषायः फ्रोध गुस्से फो कहते हैं फ्रोध दुखदाई होता है । एक बार दोपायन नाम के साधु विहार करते हुए द्वारिका नगरी में आये और नगर के बाहुर वन सें उह्रः गये, एक दित वहु वन में तपस्या कर रहे ये उस समय छुछ राजकुमार पर्बत को ओर से खेल-कूद कर श्रा रहि ये । रास्ते में राजकुमारों को जोर से प्यात्त लगी । प्यास से वे बंचेन हो रहे थे । श्रावे-प्रादे उनव्ती निषाह महुवे के पेड़ के नीचे भरे हुए एक पानी के गह पर पड़ी वह पानी न था, किन्तु महुओं के गिरने से बह : पानी शराब बन गया था । राजकुमारों ने उसे पानी सप्रक्क कर थो लिया और লইা में बेहोश हो पये ` उनकी नजर दीपायन साधु पर पड़ो। बेहोशी में उन्होंने साथु पर कंकड़-पत्थर, वरसाने शुरू कर दियें श्रौर उन इतना दुदी किया कि साघु का मनं घडा गधा । उसकी क्रोधाग्नि भड़क उठी । क्रोध के कारण तपस्था-बल से साधु के कंधों से विजलो निकल पड़ी । इस बिजली से ,सारी द्वारिका ,देखते-देखते जलकर ভি हो गई । स्वप साघु मौ . उस श्राग, में जलकर भस्म हो गये और सर कर खोटी गति में गये ! «. ,..




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