जैन धर्म की उदारता | Jain Dharam Ki Uddharta
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about परमेष्ठीदास जी जैन - Parmeshthidas Ji Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परमेष्ठिने नम ॥
जेनधर्म की उदारता ।
০০০১১
पापियों का उद्धार ।
ओ प्राणिया वा उद्दारक दो से धर्म कहते है । इसी लिये
धर्म था ज्यापर)साय या उधार होना आपश्यक दे । जहा सकुचित
दृष्टि है, रमपर था पक्षपात ९; शारीरिक अच्छाई पुराई ফ দা
आन्तरि नीच ॐँचपने का भेर जय चह धमं नदीं हो स्ता
घर्म आत्मिक होता है! शारीरिक नदी । शरीर पी टरष्टि से तो कोई
भी सानय पायन 7 है) शरीर सभी 'अपदित्र द। इसलिये आत्मा
के साथ धर्म दा सयध माना ही वियेक हे । लोग निस शरीर को
शया सममत दे. “स शरीर पाते ভ্যালি मे भी गये है और जियके
शरीर नीय समझे जाते ढं ये भी सुगति को प्राप्त हुये है । इसलिये
यट निवियाल सिढ दकि पर्म चमडे मे नहीं विन््तु आमा मे
होता है । उसी लिय जैन धर्म उस वात यो स्पष्टतया प्रतिपादित
फरता है कि प्रयक प्राग्पी अपनी सुदुृति थे अनुसार তথ অল সাল
कर समता है । जैन धर्म सा शरण लने वे लिय “सवा द्वार सयके
लिय অনা তুলা है | :स बात की रपिपेणायार्य ने इस प्रकार
स्पष्ट क्या है पि-
प्रनायानामवधृना दद्धिषणा सुदु'सिनाम् ।
जिनणामनमेवदि परम भरण मतम् ॥
জা গার টিং পারল নিত हे) दरिट्री दै, হল
ইত नह लिए जेंन धर्म परम शरणभत है ।
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