जैन धर्म की उदारता | Jain Dharam Ki Uddharta

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Jain Dharam Ki Uddharta by परमेष्ठीदास जी जैन - Parmeshthidas Ji Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परमेष्ठिने नम ॥ जेनधर्म की उदारता । ০০০১১ पापियों का उद्धार । ओ प्राणिया वा उद्दारक दो से धर्म कहते है । इसी लिये धर्म था ज्यापर)साय या उधार होना आपश्यक दे । जहा सकुचित दृष्टि है, रमपर था पक्षपात ९; शारीरिक अच्छाई पुराई ফ দা आन्तरि नीच ॐँचपने का भेर जय चह धमं नदीं हो स्ता घर्म आत्मिक होता है! शारीरिक नदी । शरीर पी टरष्टि से तो कोई भी सानय पायन 7 है) शरीर सभी 'अपदित्र द। इसलिये आत्मा के साथ धर्म दा सयध माना ही वियेक हे । लोग निस शरीर को शया सममत दे. “स शरीर पाते ভ্যালি मे भी गये है और जियके शरीर नीय समझे जाते ढं ये भी सुगति को प्राप्त हुये है । इसलिये यट निवियाल सिढ दकि पर्म चमडे मे नहीं विन्‍्तु आमा मे होता है । उसी लिय जैन धर्म उस वात यो स्पष्टतया प्रतिपादित फरता है कि प्रयक प्राग्पी अपनी सुदुृति थे अनुसार তথ অল সাল कर समता है । जैन धर्म सा शरण लने वे लिय “सवा द्वार सयके लिय অনা তুলা है | :स बात की रपिपेणायार्य ने इस प्रकार स्पष्ट क्या है पि- प्रनायानामवधृना दद्धिषणा सुदु'सिनाम्‌ । जिनणामनमेवदि परम भरण मतम्‌ ॥ জা গার টিং পারল নিত हे) दरिट्री दै, হল ইত नह लिए जेंन धर्म परम शरणभत है ।




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