सुरभारती - सन्देश | Sur Bharti-sandesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ र३ এ सन्देशेपु पुनमयाऽपि फतिचिद्‌ भाया निजा योजिता पुष्ण्य स्वनिभवेन चेदूं, अनुचित ज्ञेय न वि्ठञ्जने । य स देशितुराशय सुपिपुलैयोचा विज्ञासर्निजे सुस्फीत कुरुते स एव कुशल सददेशवाहों मत 11২8, देशेपूत्तरदत्तिणेप सुचिरादाहिए्शता নবী पिद्ृद्धि सह सद्नतीयिंद्धता विद्यालयान्‌ पश्यता । यजज्ञाते खलु साध्वसाधु सकल वृत्त तदावेदित सत्य सस्क्ृत-सस्कृतज्ञनिवुधश्रयोधिया केवलम्‌ ॥१५॥ दूत कश्चन विप्रिया अप गिर सन्देशभूता वदन्‌ नीतिशैस्लुगन्यते न च॒ पुनदुर्बाच्यता गन्छति। तन्मन्येऽयमपि प्रसन्नमनसा सन्देणदारी जनो विद्वि सदसद्धिवेककुशलमंरपिप्यते स्ववा ॥६ प्रान्ते च पुनर्मिव.धमसिल रप्टया पिया स्वस्थया स्माभिप्रायनिषेदनाव सुधिय सर्वे मया सादरम । येनाय परिमार्जित प्रगुणितो भूयात्‌ सदा सख्छत्त- चेत्र निम॑लसार्गदर्शकमदहादीपप्रकाशोपम ॥१५ আম শাম पुनरहमित शीघ्रमेवाविराम ग्रामे পান सकलगरिटुपा पादमूलोपविष्ट । बाणीमेतामनुदिनमनुप्राणिनी श्रावयिष्ये विद्वद्दर्गों मुहुरपि यथा वन्य॑ता यादु ल्लोके ॥९८॥ मन्ये सर्वे स्पपरगणना-सान-मात्सर्यदोपै-- रस्पष्टान्न करणसुभगा. सद्गुणग्राहिएश्र । विदृद्ययों. सरस-करुणा-स्नेह-सोहारद - पूरे- दू रे दूरेषप्यसमसमये मत्सहाया भवेयु' ॥ 6




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