बौध्द दर्शन के भ्रम-सिध्दान्त की समीक्षा | An Appraisal Of Buddhist Theory Of Illusion

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Book Image : बौध्द दर्शन के भ्रम-सिध्दान्त की समीक्षा  - An Appraisal Of Buddhist Theory Of Illusion

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१) प्राग्‌ या पूर्व दिडनाग प्रमाण विचार (पाचवी शती के प्रारम्भ तक) (२) दिड्नाग एव उनके सम्प्रदायवर्ती प्रमाण मीमासा (पाचवी शती से ग्यारहवी शती तक) दिड्नाग के पूर्व का अध्ययन क्षेत्र भी विस्तृत है, अत उसे सौविध्य के लिए पुन दो उपविभागो मे बाट सकते हैं- १ त्रिपिटककालीन एव २ त्रिपिटकोत्तरवर्ती | त्रिपिटककालीन सम्पूर्ण त्रिपिटक साहित्य मे प्रमाणशास्त्र का निरूपण करने वाला एक भी स्वतन्त्रे ग्रन्थ नही हे | त्रिपिटको मे कर्ही-कर्ही तक्की अथवा तक्किक एव विभसी शब्दो का प्रयोग अवश्य हुआ हे, जो तत्कालीन 'तार्किक लोगो के परिचायक प्रतीत होते हे। अभिधम्मपिटक के कथावत्थुप्पकरण (२५५ ई०प्‌०) मे परिण्णा प्रतिज्ञा), उपनय एव निग्गह निग्रह) शब्दो का प्रयोग हुआ है, जो स्पष्टत न्याय की पारिभाषिक शब्दावली मे मिलते है। त्रिपिटको के आधार पर वसुबन्धु ने अभिधर्म कोश (७ २-४) मे ज्ञान के दश प्रकार निरूपित किए है, यथा- धर्मज्ञान, अन्वयज्ञान, सवृत्िज्ञान, दु खज्ञान., समुदयज्ञान, निरोधज्ञान, मार्गज्ञान, परिचितज्ञान. क्षयज्ञान ओर अनुत्पादज्ञान । इन ज्ञानो का प्रमाण विचार के साथ आचार्यो ने कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया ই, किन्तु आगे चलकर प्रत्यक्ष एव अनुमान के रूप मे जो दो प्रमाण माने गये है, उनमे उन ज्ञानो का समावेश सभव हे। त्रिपिटकोत्तरवर्ती त्रिपिटको के उत्तरवर्ती काल द्वितीय शती ई० से पचमशती ई० मे नागार्जुन, मैत्रेय, असंग, वसुवन्धु, दिड्नाग एव धर्मकीर्ति प्रमुख दार्शनिक हुए. जिन्होने त्रिपिटक साहित्य के आधार पर मौलिक चिन्तन किया एव भारतीय दर्शन को नयी दृष्टि प्रदान किया। प्रमाण-चिन्तन के क्षेत्र मे इनका अत्यधिक महत्त्व है, इसलिए इनका एतद्‌ विषयक परिचय दिया जा रहा है। नागार्जुन ये न केवल बौद्ध दर्शन मे अपितु सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। नागार्जुन माध्यमिक सम्प्रदाय के सस्थापक आचार्य थे। नागार्जुन ने सत्‌, असत्‌ उभय एव अनुभय = [9 =




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