गुप्त जी की काव्य-धारा | Gupt Ji Ki Kavy Dhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुसजी को काव्य-धारा ६ “तुम्हारी चिट्ठी मिल्ली । वर्त्तमान साहित्यिक रूचि के सम्बन्ध में क्या लिखूँ | श्राजकल लेखको का रग ढंग कुछ और हां तरह का है| मेरे समय म यह बात नदी थी | च्रधिकाश लेसक समय श्रौर सदाचार का ध्यान रखते थे, परन्तु अब वह बात कहाँ | “जाजकल फे उदीयमान लेलक तौ साहित्य की चर्चा न कर के साहित्य-क्षेत्र भें काम करने वाज्ञों की चर्चा करना ही साहित्यिक कार्य समभने लगे हैं| व जब साहित्य-चर्चा में शते है तब या तो पुराने साहित्यिकारों की फजीहत करते है या वर्तमान समसय के साहित्यिक ज्ेन्न म्‌ काम करने वालों की ल्वप्रर लेते है। उनकी इस समय ऐसी ही साहित्यिक सुरुचि दिखायी देती हैं | तुम्हार नगर के एक साप्ताहिक ने तो इस कार्य का ठेका सा ले लिया हैं। सम्पादक और लेखकों का उसम स्वूब उपहास किया जाता है| कहते हैँ, इस पत्र की बड़ी खपत है। तन तो यही जान पड़ता है कि लोग निन्दा-पूरक लेख लिखना और पढना पहुत पसन्द करते हैं । मेरे समय में नवयुवक लेखको की भी ऐसी ही रुचि थी या नहीं, इसका ज्ञान मुझे नहीं | ऐसे लेख भी मुझे इधर ही देखने में आये हैं। इन लेसो मे बड़े से बड़े हिन्दी- लेखक का उपहास किया जाता है, उसकी कमसजोरियों बता कर उसका विद्रप किया जाता है, सड़ी से सड़ी बात को आधार मान कर उसके रूप-रेखा की, उसके रहन-सहन की तसवीर बड़ी साफ-सुथरी भाषा ল खीची जाती है । और यह सब हमारे वे नवयुवक क्रते है जिनसे मातृ- भाप्रा के भविष्य में हित की आशा है । इनकी इस प्रकार की रुचि थी याद ग्राते ही मेरे तो रोगटे खड़े हो जाते हैं | एक पत्र की चरित-चर्चा के जो क्िज्ञ तुमने मेरे पास भेजे हैं उन्हें, मालूम होता है, ठुमने व्यान देकर नहीं पढ़ा है। उसकी आड़े भें तुमकी जो भीतरी मार दी गयी है उसे बर्चमान साहित्यिक सुरुचि का एक बढ़िया नमूना समझो । उसी पन्न के हाल के एक अक में, तुम्हारे सम्बन्ध में, जो स्थानीय म्रिश्री! घोली गयी है, उसे युवक साहित्यिकों के साहित्यिक सदाचार ९




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