संघर्ष और शांति | Sangharsh Aur Shanti

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Sangharsh Aur Shanti by पुष्पा महाजन - Pushpa Mahajan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नव निर्माण । च इसी प्रकार तीन मास व्यतीत हो गथे। इस श्रवधिमे ही माशिक दूसरी श्रेणी की पुस्तक पढ़ने लगा था। इसी बीच' कुमार को आगे परशिक्षा के लिये बाहर जाने का शासकीय श्रादेश आ गया। उसे मारिक লী লিন্বা উই । वह्‌ श्रपने को उसकी भविष्य-डोर का सूत्रधार समै था । निस्सदेह इसमें उसकी ग्रहं भावना प्रधान न होकर उत्तरदायित्व की भावना प्रधान थी, तो भी नव निर्माण की जो योजना उसने मस्तिष्क में निमित की थी वह अधूरी ही रह गर्द्‌। माशिक से उसने कहा : “में जा रहा हूं मोती !” बालक का अ्रबोध मन जैसे किसीने गरम सलाई से दाग दिया । ममता नाम की श्रमूल्य वस्तु यदि उसे मिली है तो केवल दो व्यक्तियों से, वे थे माँ और कुमार। नयनों में अश्वु-भरे वह निष्पलक देखता ही रह गया। “क्या है रे ?” स्नेह से कुमार ने पूछा । . “आप चले जायेंगे बाबू जी, तो में क्या करू गा ?” कितनी स्वाभा- विक व्यथा थी बालक के स्वर में । “माशिक ! तुम पाठशाला में पढ़ता, अच्छे बालक बनना, सब तुम्हें नेह करेगे । किन्तु मै सदा के लिये थोडे ही जा रहा हं । एक वषं पदचात्‌ यहीं लौट आऊँगा । दस सान्त्वना से बालक चहक उठा : “मै भी श्रव काम करने लगा हैँ बाबू जी । “क्या ?” आइचर्यास्वित होकर कुमार ने पूछा । | “हाँ बाबू जी, माँ कहती हैं, अच्छे लड़के निठल्ले नहीं घुमते । बह हमारा पड़ोसी है न गोपाल, वह लकड़ी की पेटी लिये बूट-पालिश करता घुमता है। वह मुझे अपने संग ले गया। मेंने भ्रठन्नी का काम किया, उसने मुझे आधा भाग दिया । मेरा अभ्रपना सामान जो नहीं है इसीसे बाबू जी । १७




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