साहित्य - विवेचन | Sahity - Vivechan

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Sahity - Vivechan  by योगेन्द्र कुमार मल्लिक -Yogendra Kumar Mallik

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १७ गर किया जा रहा है 1 विज्ञेषता यह है कि इस बार गुप्त- था प्रच्छनन रुप से यह हमारे सामने लाया गया है। पर यह भी पश्चिम की शोर से पूर्व-बिजय की एक - सांस्कृतिक योजना ही है। सवाल यह है कि हम इसे स्वीकार करेंगे या नहीं । सबसे पहले हमें यह भ्रम दूर कर देना चाहिए कि यह दर्शन ही एक-सात्र प्रगतिगीलता का पर्याय है श्र इसके बिना हम जहाँ-के-तहाँ रह जायेंगे । राष्ट्र ओर जांतियाँ किसी मतवाद के बल पर बडी नहीं होतीं; वे बड़ी होती हे श्रपनी भ्ान्तरिक चेतना, सहानुभूति भ्रौर प्रपत्तो के बल पर। क्रिश्चियन धर्म भी हमें सम्य बनाने का ही 'लक्षण' लेकर भ्राया था, शौर माक्स दहन भी हमें समुन्तत श्रौर प्रगतिशील बनाने का उद्देश्य लेकर चला है। परन्तु जिस प्रकार हम क्रिश्चियन धर्म के बिना भी धामिक भ्रौर सस्य बने रहे, उसी प्रकार माक्त-दर्शन के बिना दा्दोनिक और प्रगतिशील बचे रह सकते है, यदि हम शअ्रपनी प्रगतिशील परम्परा को पहचान सकें और भ्रयनी दाशमिक और सांस्कृतिक विरासत के प्रति ईमानदांर रह सकें। ऐसा न होने पर एक छिछली और क्षरिक प्रमतिशीलता ही हमारे हाथ लगेगी । जहाँ तक एक नई समीक्षा-पद्धति और साहित्यिक चेतना का प्रइन है, हमें यह स्वीकार करने में कोई प्रापत्ति नहीं क्वि साहित्य के सामाजिक लक्ष्यों भर उद्देदयों का विज्ञापन फरने वाली यह पद्धति साहित्य का बहुत-कुछ उपकार भी कर सकी है। उसने हमारे युवकों को एकं नई तेजस्वत भी प्रदान की है प्रौर एक नया धात्मबल भी दिया है। पर यह किस मृत्य पर हमें प्राप्त हुआ है ? सबसे पहले इस नई पद्धति ने हमारो नई शिक्षित सन्तति को विशेष समाज़ दर्शन शौर जीवन-द्शन का झनुचर बना दिया है । इसके बाद ही उसने हमारी दृष्टि एक तात्कालिक सामाजिक समस्या पर केन्द्रित कर दी है। हम एक छोटी किन्तु मज़बूत रस्सी से धाँधकर उक्त साप्राजिक समस्या की खूंढी में जकड़ 7 गए हे झऔर भ्रव हम किसी एरी शरोर पिर उठाकर देख भी नहीं सकते । यही परचशता है जो हमें विदेशी शासन से स्वतन्त्र होते ही प्राप्त हुई है । श्राज हमारे साहित्यिक मानदण्ड इसी खूटी-से बेंधे होने के कारण प्रतिशय सीमित और संकीरं हो उठे है। हमारा सारा विचार:स्वा- तर्य खो गया है भ्ौर हममें बड़े श्रोर व्यापक - विचारों को ग्रहण करने की क्षभता नहीं रह गईं है। विचारों का एक 'सरकारी महकुमा' छुल गया है, जिसको झोर सबकी टकटकी लगी रहतो है। प्राज्यं तो यह है कि हम बिना इतनी परवश्ञताएँ उठाए भी प्रपना प्रौर प्पने साहित्य का कल्याण कर सकते थे श्रोर कर ही रहे थे। : हम रवोच् शोर




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