देव और बिहारी | Dev Or Bihari

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Book Image : देव और बिहारी  - Dev Or Bihari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाच-साइश्य ८७ ब्त रदतीमीहै, तो चह छिप जातीदहे । समालोचह का पारा ^ परिम व्यथं जाता 1 दुःख উ कि वर्त॑मानं हिंदी-साहित्य सें कभी- कमी देपी समाजोचनाद्‌ निकल जती हैं । यदि किती कवि की ऋुविता में साव-साहश्य भा जाय, ता समाक्षोचना करते समय एकाएक उसे 'तुक्कद” या श्वोरः न्‌, कह घेठना चाहिए, वरनू इस प्रसंग पर इसर्सन भौर ध्वन्यात्षोककार की सम्मति देखकर कुछ लिखता अधि उपयुक्त होगा । कितने ही पघमालोचक ऐसे हूँ, जो कवि की कविता सें साव-साइश्य पाते डी क़रक्षम-कुल्ट्टादा लेकर उप्तके पीछे पर जाते हैं, भौर समाज्नोच्य फवि ' को गालियाँ भी दे बेठते हैं।। अतपएुव काव्य में चोरी क्या है, इस च(्त को हिंदी-समालोचकों को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेनी चाहिए; सिद्धति सूप से इम हस विषय पर ऊपर थोड़ा-प्ता विचार कर आए हैं, अब झागे उदाहरण देकर उन्हीं बातों को औोर स्पष्ट कर देना चाहते हैं। इस बात को सिद्ध करने के लिये हम केवक्ष पाँच. उदाहरण उपस्थित करते हैं। पइले तीन ऐसे हैं, जिनमें भाव-साइश्य रहते हुए भी चोरी का झभियोग लगाना ब्य्थ है। यद्दी क्यों, हम वो परवर्तों कवि को सोइय-सुधारक फी उपाधि देने को तेयार हैं। अंतिम दो में सोंदय-सुधार की कौन कहे, पूर्ववर्ती की रचना की सोंदर्य-रत्ता सी नहीं हो पाई दे, अतः उनमें चोरी का प्रभियोग लगाना अनुचित न होगा-- र , (१) करत नदीं अपरधवा सपनेहुँ -पीय, , सनि करन की चिरिर्यो रहिगो हीय। , ` (२) सपनेहूँ सनभावतो करत नहीं अपराध ; : मेरे मन ही में रही, सखी, सार की साधा --- ----------------




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