सितार - मालिका | Sitar-maalika

99/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Sitar-maalika by भगवतशरण शर्मा - Bhagavatasharan sharma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about भगवतशरण शर्मा - Bhagavatasharan sharma

Add Infomation AboutBhagavatasharan sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रथम अध्याय सितार ओर उसके रहस्य नागा सिंतार का इतिहास-- सितार के निर्माण का श्रेय झाजकल अमीर खुसरो को दिया जाता है। सद्गीत की सभी पाठ्य पुस्तकों में झमीर खुसरो सितार तबला तथा अन्य न जाने कितने वाद्यों के आविष्कार का भगवान माना जाता है। बड़ी मनोरन्जक बात तो यह हे कि स्वयं अमीर- खुसरो अथवा उसके किसी सम सामयिक इतिहासकार ने नि चचां नहीं की हे। हाँ सज्ञीत की कुछ नवीन शेलियों अथवा नई घुनों और लों को श्रचारमें लाने का प्रमाण अवश्य मिलता है । ाइने अकबरी में भी अबुलफज़ल ने इस प्रकार के किसी वाद्य अथवा वादक की चर्चा नही की है । इतिहास पर दृष्टि डालने से हम देखते हैं कि गुप्रकाल तक अनेक वीणाओं का अच्छा प्रचार रहा है। समय-समय पर वीणाओं में परिवतन भी किये गये हैं । लगभग ६० प्रकार की वीणाओं के नाम आज भी ग्रन्थों में मिलते हैं। इन्हीं में तीन तारों वाली त्रितंत्री और सौ तारों वाली शततंत्री वीणाओं का उल्लेख भी है। सम्भव है किसी मुसलमान कलाकार ने त्रितंत्री का फ़ारसी नाम सहतंतरि या सहतार रख दिया हो और सात तार दो जाने पर वह सतार या सितारी के नाम से पुकारी जाने लगी हो। कुछ भी सददी वर्तमान सितार भारतीय वीणा का रूपान्तर है चाहे इसका दविष्कारक कोई हिन्दू हो या मुसलमान । हारमोनियम में कोई व्यक्ति श्रुतियों को प्रगट करने के लिए कुछ भी उलट फेर करदे फिर भो हारमोनियम भारतीय आविष्कार नहीं कहला सकता । सितार को उत्तर भारत में सरस्वती वीणा भी कहते हैं जो कि उपयुक्त हैं किन्तु सितार एक सरल और प्रचलित शब्द होने से शीघ्र ही बदला नहीं जा सकता अतः उसको भारत का श्रेप्तम शाख््रीय वाय कहकर हम आगे बढ़ते हैं सिंतार के जन्म से पूर्व तन्त्री बाद्यों में वोणा और गायन में धुपर शैली ही प्रधान थी । अतः उस काल के सज्ञीतज्ञ वीणा में भी घरुपद्‌ अंग को ही प्रधान रखा करते थे । परन्तु सितार के साथ-साथ ही ख्याल और क्रील-कल्बाना कव्वाली का भी जन्म हो चुका था । अतः घुपद श्रुब-पद के साथ-साथ सज्ञीतज्ञों में दुतलय की तानों एवं विभिन्न लयकारियों के प्रति भी रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। साथ-साथ वीणा में दिड़ बोल न होने के कारण द्रत के काम में विशेष आनन्द नहीं आ पाता था । जब कि सिंतार में वीणा का समस्त गांभीय्य रखते हुए दिर बोल के कारण दुतलय का भो यथेप्र झानन्द आ जाता था | अत इसी काल से सब्गीतज्ञों ने वीणा को छोड़ कर सितार अपनाना प्रारम्भ किया और इसे इतना सम्पूर्ण बना दिया कि वीणाकार और श्रुपदिये जिस कार्य को अ्रघान समभते हैं उसे न छोड़ते हुए ख्याल गायकी और तराने तक का अंग स्पष्ट कर




User Reviews

  • Kaushik

    at 2019-04-14 10:08:59
    Rated : 9 out of 10 stars.
    Book is excellent. Very helpful for biginers to master.covers all aspects of sitar playing and through knowledge about ragas.I salute.
Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now