दिव्य जीवन | Divya Jivan

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Divya Jivan by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रेम और त्रिसार्ग 697 रही है; इस अवस्थामें ज्ञान भी भक्तिकी तरह अपूर्ण होता है,--वह कट्टरपंथी, धामिक फूट डालनेवाला, असहिष्णु और किसी एक ही अनुदार तत्त्वकी संकीर्णतामें आवद्ध होता है, यहाँतक कि उस तत्त्वको भी वह प्रायः अत्यंत भपूर्णरूपमें ही ग्रहण करता है। जब भक्‍त उस शक्तिको भली- भाँति जान जाय जो उसे ऊँचा उठावेगी तब समझो कि प्रेम सचमुच उसकी पकड़में आ गया है, वह उसे अंतमे वैसे ही अमोघ रूपमे शुद्ध तथा विशाल बनाता है जैसे ज्ञान वना सकता है; ये समकक्ष शक्तिर्या है, इनके एक ही लक्ष्यपर पहुँचनेके उपाय भले ही भिन्न-भिन्न हों। भक्‍तके भावावेशको नीची दृष्टिसे देखनेवारे दाशंनिकका अभिमान भी, अन्य सव प्रकारके अभिमानकी तरह, उसकी अपनी प्रकृतिकी किसी विशेष तृट्सि पैदा होता है; क्योकि यदि वुद्धिको अति एकांगी रूपमे विकसित किया जाय तो वह हृदयसे मिलनेवाली देनको खो कैव्तीदहैँ। बुद्धि हृदयकी अपेक्षा हर तरहसे उत्कृष्ट ही हो एेसी बात नहीं है; यदि यह्‌ उन द्वारोको अधिक शीघ्रतासे खोल डालती है जिन्हें हृदय प्रायः व्यर्थमें ही ट्टोरता रहता है तो, यह भी प्रायः उन सत्योसे चूक जाती है जो हृदयके लिये अति निकट तथा सुग्राह्मय हैं। विचार-पद्धति जब गंभीर हौते-होते आध्यात्मिक अनुभूतिमें परिणत होती है तब यदि वह शीघ्र ही गगनचुंबी चोषियों, शिखरो, व्योम- व्यापी विशाल्ताओतक जा पहुँचती है तो भी, यह हृदयकी सहायताके बिना दिव्य सत्ता तथा दिव्य आनंदके अतिशय गंभीर एवं समृद्ध गुहा-गह्वरों तथा समुद्रीय गहराइयोंकी थाह नहीं ले सकती। भक्तिमार्ग प्रायः ही अनिवार्य रूपसे निम्त कोटिका माना जाता है। इसके कई कारण हँ! अथम, यह पूजाको केकर चरता है ओर पुजा आध्यात्मिक अनुभवकी उस अवस्थासे संबंध रखती है जहां मानव-आत्मा ओर भगवानूमे पाक्य हौ या उनकी एकता अभी अधूरी हो, दूसरे, इसका असली मूलतत्त्व ही है प्रेम और प्रेम सदेव दो का बोधक होता है, प्रेमी और. प्रियतमका, अतएवं हवित्वका, परंतु सबसे ऊँचा आध्यात्मिक अनुभव है एकत्व, और तीसरे, यह वैयक्तिक ईश्वरकी खोज करता है जब कि सर्वोच्च तथा शाश्वत सत्य है विर्व्यक्तिक ईश्वर, भर इसे एकमात्र सद्वस्तु न भी माना जाय। परंतु पूजा भक्तिमार्गका प्रथम पगमात्र है। जहाँ वाह्य पूजा आंतरिक आराधनामें परिवितित हो जाती दहै वहींसे शुरू होती है सच्ची भक्ति; वह गभीर होकर प्रगाढ दिव्य प्रेमका रूप धारण करती है; उस प्रेमका फल होता है भगवान्‌के साथ हमारे संवंधोंकी घतनिष्ठताका इषं; घनिष्ठताका हर्ष मिलनके आनंदमें परिणत हो जाता है । ज्ञानकी




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