श्री भागवत दर्शन खंड 6 | Shri Bhagwat Darshan Khand 6

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९ १५) अविच्छिन्न नहीं रहने पाती। जिसके मन में भगवत्‌ सेवा केः अतिरिक्त किसी कार्य की प्रबल वासना दे, उसका चित्त स्थिर नहीं रहने पाता | उसमें चंचलता आ दी जाती है। जितना मेरा अनुमान था, उससे यह प्रन्थ कहीं अधिक बड़ा दोगा, अथ तक लगभग २२ खण्ड लिखे जा चुके हैं ओर छठा सकन्‍्घ समाप्त भी नहीं हुआ | अभी कितने ओर द्वोंगे भग- वान्‌ जानें, यदि भगवान्‌ की इच्छा इसे पूर्ण करने की हुई तो लिखने में तो मुझे, कोई धिक्तप दता नदी । उस समय तो सब ओर से चित्त की धृत्ति्यां हट कर तन्मय हो जाती दै, समाधि सुख का अनुभव होने लगता है । लिखना मेरी प्रकृति के अनुकूल है, किन्तु यद्‌ प्रकाशन फा मंकट मेरी प्रकृति के सर्वधा प्रतिकूल है | आज यद नहीं, कल बहू नहीं, समय पर नहीं निकला, इन बातों से चित्त में चंचलता होती है। जिससे . प्रकाशन की आशायें थीं, उन्होंने सबंधा कुछ नहीं किया--यह कषटना -तो मूठ मी होगा, पाप भी दोगा किन्तु वष्ट करना न करने के ही घरावर है। रुपये में एक आना सममिये । शेप पन्द्रह आना में हम और सब हैं। यदि यह सादे सात आना- भर भार मेरे सिर से ओर उतर जाय, तो मैं छु उलटा सीधा मजन भी कर सरः और लिख भी सकर । इस पुस्तक को लोगों ने . पसन्द न किया द्वो, सो भी वात नदीं दै। अब तक की माँगों से तो 'हमने यही अनुभव फिया है, कि यदि कुछ सच्ची लगन से निस्‍्वार्थ भाव से सेवा करने बाले व्यक्ति मिलें, तो इसके प्रकाशन में आर्थिक घाटा भी नहीं है और इसका बहुत प्रचार हो; सकता हैँ | अभी इसे प्रकाशित हुए सात-आठ महीने ही हुए हैं। इसके लिये कोई, विशेष प्रसत्त भी नहीं किया गया । बाहर प्रचारक भी नहीं गये,




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