श्री भागवत दर्शन खंड 35 | Shri Bhagwat Darshan Khand 35

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Shri Bhagwat Darshan Khand 35 by श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी - Shri Prabhudutt Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिर ११ यह्‌ सुनरर वलु मद्वि কি নিজকে, ই ঘর হী बोले--“राजन्‌ ! तुमने भो झिसोी की आशापर ऐसे दी पानी फेर है। अ्रस्तु, अप में तो तुम्दारों थराशा को पूर्ण करूँगा ही । यह कहर मुनि ने अपने योग ल से राज़ा के सोये हुए पुत्रों घुला दिया । राजा अपने पुत्रों पारर शत्यन्त प्रसन्न हुआ । अत सुनि मे माया से उमाया दुध्रा वद्‌ अपना दुप्रला-पतला হাথ त्याग दिया और अपना यथार्य' रूप राजा िसाते हुए फदा--“राजन्‌ ! म वदी सुनि, निसा सामध्यं रहते हरण भी श्नापने सत्कार नहीं किया था, मुझे निराश कर दिया था तय से मैंने सबसे आशा छोडकर तपस्या में चित्त लगाया। मनुष्य जब तक आशा फो छोड़ता नहीं, तभी तक दुःस पाता है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये, कभी झिसी से कोई आशा न फरे। उिन्तु, आशा बिना किये रहा नहीं जाता । तभी प्राणी दुःस पाता है ।” इतना कह फर সহি तनु समीप के दी बन में तपस्या करने चले गये। राजा पीरयू मन सी अपने पुत्र भूरियू मन को साय लेरर अपने घर फो चले आये। महिं ऋष राजा सुमित्र से कद्द रहें हैं--“राजन्‌ ! द्रिण आपके द्वाथ नहीं आया, तो आप इतने दुःसी क्‍यों हो रहे हैं. ९ उस छुद्र आशा फो छोडिये और सुसी होइये ।? इस कथा से सारांश यही निऊला कि मनुष्य अपनी 'आशाओं के ही कारण ठुःसी हो रद्या है। सुस्॒ का एक मान उपाय है, समस्त आशाओं को श्यामसुन्दर के चरणारविन्दों मे अपित कर देना । रितनी कितनी क्षीण आशायें चित्त मे उठती हैं, ये सन भगवान्‌ ची प्राप्ति मे लग जार्यै, तो वेडपर हो जाय । समुद्री तस्ननो क न्त है, आकाश से वरसनेवाले जलृगिन्दुओं की संख्या भी हो सकरी दै प्रप्वी के रजकुणो की गणना भी संभव दैः किन्तु, इन अशाओं की कोई >ंस्या नहीं! मनमें जो आशा




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