संसार का संक्षिप्त इतिहास भाग 1 | Sansar Ka Samkshipt Itihasa bhag 1

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Sansar Ka Samkshipt Itihasa bhag 1  by मदनगोपाल - Madangopal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १ ५ आकाशान्तगंत प्रथ्वी हमारे जगत्‌ की कदहानी--पुराव्रत्त-- का लोग अभी तक्र ठीक-ठीक नहीं जान पाये हैं | दो सो वर्ष पूर्व तक तो मनुष्यों के केवल तीन सहख्थ वर्षों से कुछ अधिक का ही इतिहास ज्ञात था और उससे पहले की कथा का आधार थीं पुराण-कथायं चरौ काल्पनिक विचार | ई० पू० ४००४ में जगत्‌ की सहसा सृष्टि हो गई इसके तो सम्य संसार का अधिकांश भाग मानता ही था, और ऐसी शिक्षा भी उस समय दी जाती थी; मतभेद इतना ही था कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय वसन्त-ऋतु थी या शिशिर। हित्र_ बाइ- बिल की मूलपदानुमार व्याख्या पर अधिक बल देने, ओर उसके सम्बन्ध में धर्मशासत्र की मनमानी धारणाओं के सत्य समभने के कारण ही सष्टि-उत्पत्ति-सम्बन्धी, इस प्रकार की वर्षणणना करने का विलज्ञण श्रम उत्पन्न हुआ था | इन विचारों के अब पघर्माचार्य कभी का त्याग चुके और यह सर्वसम्मत सिद्धांत है कि जिस विश्व में हम रहते हैं वह युग-युगान्तरों से, ओर संभवतः अनादिकाल से, ऐसा ही चला आता है । दोनों छोरों पर दर्पणयुक्त होने के कारण, प्रतिबिम्बों-द्वारा अनन्त प्रतीत होनेवाले कमरे की भाँति, हमारी यह धारणा मिथ्या भी हो सकती है। परन्तु विश्व का छुः था सात हज़ार वर्ष का ही पुराना मानने का सिद्धान्त अब सवथा मिथ्या सिद्ध हो चुका है । इस समय सभी यह जानते हैं कि पिण्डाकार प्रथ्वी, नारंगी की भाँति, दोनों छोरों पर चिपटी हैं और उसका व्यास ८,००० मील का है | इसकी पिण्डाकृति का যান तो थोढ़े से बुद्धिमानों के २,४०० वर्ष पूर्व भी था, परन्तु उससे पहले यह चिपटी-चौरस दही समी जानी थी । प्रथ्वी, आकाश, ग्रह तथा तारकाओं-संबंधी तत्कालीन विचार और धारणायें अब अत्यन्त असंगत प्रतीत होती हैं | हम जानते हैं कि प्रथ्वी अपनी घुरी पर (जो विषुब॒त रेखा में हाकर गुज़रनेवाले व्यास से लगभग २४ मील छोटी है) घूमकर २४ घरटे में एक परिक्रमा पूर्ण करती है ओर उसी के कारण दिन रात होते हैं। सूर्य की परिक्रमा प्रथ्वी कुछ एक परिवर्तन-शील अण्डाकृति मार्ग-द्वारा एक वर्ष में समास करती है | सूर्य के अत्यन्त




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