श्री राधा का क्रमविकास [दर्शन और साहित्य में] | Shri Radha Ka Kramvikaas [Darshan Aur Sahitya Mai]

Shri Radha Ka Kramvikaas [Darshan Aur Sahitya Mai] by डॉ० शशिभूषण दास गुप्त - Dr. Shashibhushan Das Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ )! पूजा का जितना उल्लेख प्राचीन इतिहास-पुराण-काव्य में मिलता है उससे देवी के पहाड़ी वन-प्रदेश के आर्येतर निवासियों द्वारा पूजित होनं का सम- थन काफी मिलता है। इन विषयों पर पहले ही .काफी लिखा जा चुका है इसलिये मेन विस्तृत विवेचन नहीं किया । . वास्तव में आ्राज हम जिसे हिन्दू धर्म कहते हं वह एक जटिल भिधित धर्म है, बहुत दिनों की बहुतेरी धारणाओं न आज एकत्रित होकर उसके वर्तमान बहु-विचित्र रूप को सम्भव किया है। देवी पूजा का उद्भव और प्रचलन भाय॑ जाति की अपेक्षा श्रार्येतर भारतीय श्रादिम निवासियों मेही होने की सम्भावना रहने पर भी इस बात को आज स्वीकार करना होगा कि इस' देवी-पूजा का मूलतः अवलम्बन करके भारतीय शक्तिवाद ने जो रूप धारण किया है उसके अन्दर उन्नत दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टि- सम्पन्न आर्यमनीषियों की देन भी काफी है। श्रार्यंतर जातियों ने विश्वास, संस्कार, कल्पना, पूजा-प्रकरण आदि का तथ्य प्रदान किया है, और आये दाशंनिक प्रतिभा नं निरन्तर उसमें उच्च दाशंनिक ततत्र श्रौर शअ्रध्यात्म- अनुभूति युक्त किया है। इसीलिये काली, तारा आदि देवियों का दशमहा- विद्याहप एक ओर असंस्कृत आदिम संस्कार का--और दूसरी ओर गहरे आध्यात्मिक तत्त्व का प्रतीक-स्वरूप हमारे सामने दिखाई पड़ा है । यह जटिल सम्मिश्रण हमारे समाज और धर्म में सर्वत्र विद्यमान है। ऋग्वेद का जो सूक्त परवर्ती काल में देवी-सुकत के नाम से प्रसिद्ध हुआ है, वास्तव में वह अम्भूण ऋषि की वाक्‌ नामक ब्रह्मवादिनी कन्या की उक्ति है। स्वरूप-प्रतिष्ठा के फलस्वरूप उसने ब्रह्मतादात्म्य पाया था; उस ब्रह्मतादात्य-उपलब्धि के समय उसने अनुभव किया था, श्रह्य-स्वरूपा में ही रुद्रवसु, आदित्य और विश्वदेवगण के रूप में विचरण करती हूँ! मिन्न-वरुण, इस्दर-अग्नि और अश्विनीकुमारदय को में ही धारण करती हूँ । यजमान के लिए में ही यज्ञफल रूपी धन धारण किया करती हूँ। में संसार की एकमात्र अधीश्वरी हूँ, में धनदात्री हूँ; में ही यज्ञाड़ू का आदि हँ--ज्ञानरूपा हूँ; बहु प्रकार से भ्रवस्थिता, बहु प्रकार से प्रविष्टा मुञ्ले ही देवगण भजा करते हूं । जीव जो श्रन्न खाता है, देखता है, प्राण धारण करता है--ये सब मेरे द्वारा ही साधित हो रहे हैं; इस रूप में जो मुझे समझ नहीं सकता है बही क्षीणता को प्राप्त होता ह। में खुद ही यह सब जो कहती हूँ, देवता और मानवगण द्वारा वही सेवित होता है; जिसको-जिसको में चाहती हूँ उसको-उसको में बड़ा बना देती हे; उसे ब्रह्म, उसे ऋषि, उसे सुमेधा बनाती हूँ। ब्रह्मविद्वेषी हननयोग्य के हीं के लिए में ही रुद्र के लिए धनुष पर ज्या आरोपण करती हूँ, जनता




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