जैनविद्या | jainvidhya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैतविज्ञा 11 में ही बहुत ख्याति प्राप्त हो चुकी थी। ऐसे महान्‌ कवि भ्रपने सम्बन्ध में चुप्पी साथे बैठे हुए हैं - उन्होंने न प्रात्म-सतुति की है, न भ्रपनी कृतियों का यशोगान गाया है। हम उनकी यह उक्ति पढ़कर चकित हो जाते हैं कि वे उस निर्मेल पुण्य पवित्र रास कथा का कीर्तन (शिम्मल-पुण्छ-पवित्तकह-कित्तणु ) से झारम्भ कर रहे हैं, जिसको भली-भांति जानने समझने से स्थायी कीति इदि को प्राप्त हौ जाती है (संधि 1.2.12) -~ चकित इसलिए हौ जति हैं कि जो कवि रचनाकारों, पाठकों, श्रोताप्रों की स्थायी कीति की बृद्धि का माग सूचितं करता है, वह स्वयं भ्रपना यथाथ परिचय तक नहीं दे रहा है নত ননী कीति का यान करने सेतो बहुत दूर रहा है । उन्होने प्रपनी उपाधि “कविराज का प्रयोग भी श्मपने लिए एकार्थ स्थास पर ही किया है - बुद्धिएँ भ्रवगाहिय कइराएँ (संधि 1.2.9) । वे चाहते, तो श्रपनी प्रशंसा करते हुए भ्रपना परिचय दे देते, परल्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । उनकी इस प्रवृत्ति को ख्याति-पराइ्मुखता ही कहना चाहिए । जिस प्रकार स्वयम्भू ने खू्याति-पराड्मुख रहकर अपने सम्बन्ध में प्रायः मौन धारण किया है, उसी प्रकार उन्होंने भपने झ्राश्रय दाता राष्ट्रकूट समञ्नलाट्‌ के सामन्‍त धनंजय का भी न परिचय दिया है, न उनकी स्तुति की है। उन्होंने “पठम-चरिउ” की कतिपय संधियों की पुष्पिका में भ्रपने श्रापको “घनंजयाश्रित'' कहा है। इय एत्य पठम चरिए धरंजयासिय-सयम्मुएव-कएु (संधि 1.16.10) । संधि 2, 17, 18 आदि के भ्रन्त में इसी प्रकार उन्होने षनंजय का उल्लेख किया है । जान पडता है किं स्वयम्भू की एक पत्नी “प्रभिन्नभ्वा'' (भ्रमृताम्बा) ने उनसे ““पउमेचरिउ का 'विज्जाहर कण्ड' (विद्याधर काण्ड) झौर उनकी दूसरी पत्नी “झाइच्चम्बिया झ्रादित्याम्मा” ने उनसे “उज्का काण्ड (ध्रयोध्या काण्ड) ” लिखवाया - भ्र्थात्‌ उन दोनों ने अपने पति को उस काण्ड को लिखने में प्रेरणा दी होगी, लिखने में प्रोत्साहित किया होगा । उन्होंने कहा है--- शामेख साऽमिश्रव्वा सयम्न्‌ चरिरी महाससा तीए लिहावियसिणं ” (संधि 20, पुष्पिका) उसी प्रकार, उन्होने सिखा है (संधि 42, पुष्पिका) ~ प्रादण्च्युएवि-पडिभोमाए भ्राइच्चस्विमाए । আজাদ उज्का कण्ड सयस्भू-धरिणीय लेहूबियं ।। जिस प्रकार स्वयम्भू ने भ्रपने श्रापको “धरणंजयासिय-समम्मुएव'* कहते हए भ्रपने श्राश्रय-दाता सामन्त धनंजय के प्रति कृतज्ञता का ्रापन कियाटहै, उसी प्रकार उन्होने उपर्युक्त ““लिहाचियं भ्रौर लेहवियं' शब्दो द्वारा अपनी प्रेरणादायिती दोनों स्त्रियों का ऋण प्रकट रूप में स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि स्वयम्भू ने उन तीनों की स्तुति नहीं की है, तथापि वे उनके प्रति छतज्ञ हैं, कृतध्न नहीं हैं। उनकी चरम कोटि की ह्याति-पराइमुखता ने उन्हें इन लोगों के विषय में भी भ्रत्यधिक मितभाषी बना दिया है। इसके साथ ही, स्वयम्भू में विनज्नता चरम सीमा तक विकसित हुई दै) प्रकाण्ड पण्डित तथा प्रतिभा-सम्पन्न कवि होने पर भी वे अपने आपको काव्य-रखना क्नादि के क्षेत्र में भति भशानी किस प्रकार बताते हैं, यह देखते ही बनता है । बे कहते हैं -




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