महादेव गोविंद रानडे | Mahadev Govind Ranade

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Mahadev Govind Ranade by पी॰ जे॰ जागीरदार - P. J. Jagiradar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृष्ठभूमि भोर बात्यावस्या 15 सा वन गया था कि जब दस बजे सुवह्‌ वह्‌ स्कूल से धर वापस आते थे को उनकी माता एक वतन में से गरम-गरम घी उनकी रोटियों पर चुपड़ कर उन्हें खाने को दिया करती थी । एक बार ऐसा हुआ कि घर में घी खत्म हो गवा। उनकी माता ने दूसरे वर्तन मे से मक्खन निकाल कर उनकी रोटियों पर चुपड़ दिया । लेकिन महादेव किसी भी तरह रोटियां खाने के लिए राजी नही हुए । अन्त में घी के बर्तन में ही थोड़ा-सा पानी डाल कर उसे गर्म करके रोटियों पर डाल कर उन्हें दिया गया | पानी से चुपड़ी रोटियां उन्होंने खुशी से खा ली । इस प्रकार नियम-पालन की उन्हें घुन-सी थी । लड़कपन में उन्हें कुछ भी कहने या याद दिलाने को जरूरत नहीं थी । मपने कर्तव्यां का उन्हें खूव ज्ञान था । उनकी दिनचर्या के विपय में उनकी चाची ने उदाहरण के तौर पर एक छोटी-सी वात बतलाई थी । उसका वर्णन उनको पत्नी ने अपने संस्मरणों में इस प्रकार किया है: “सुवह्‌ वह्‌ स्कूल जाते थे । वहां से वापस आकर नाप्ता करते ओौर फिर अपनी वहन दर्णा के साय सागरगोटी (लड़कियों का एक खेल) खेलते थे और फिर नहाने जाते थे । नहाते समय पहला लोटा सिर पर डालते ही “पुरुष सूक्‍त' का पाठ करना शुरू कर देते । नहाने के वाद अपनी विस्तृत संध्या-पूजा करते । अपने कार्यक्रम में उन्हें कोई भी विघ्न सहन नहीं होता था । एक वार जब बह संध्या कर रहे थे तो किसी वृद्ध रिश्तेदार ने पूछ लिया कि “तुम यह किस चीज का पाठ करते हो ?” रानडे ने उत्तरतों दे दिया। लेकिन उनकी पाठ की कड़ी टूट गई और वह भूल गए कि आगे उन्हें क्या बोलना है । बहुत याद करने पर भी याद नहीं आया । संध्या छोड़ते भी नबनतो थी ओर वह स्वयं फिरसे शुरू से करना भी न चाहते थे 1 फिर जिस वृद्ध ने बीच में उन्हें टोका था उन्ही से उन्होने वहां से वह पूरी संध्या कहलवाई जहां वह रुक गए थे । संध्या तो पूरी




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