मन्थन | Manthan

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Manthan by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मानव का सत्य (4 बनाकर कुछ और महत्त्व नहीं व्यक्तहोरहादहैजो हमसे तीत है १ हमारा समस्त यलन श्चन्ततः किस मूल्य का हौ सकता है ! च्ननन्तकाल ओर अगाध विस्तार के इस ब्रह्माण्ड में एक व्यक्ति को क्‍या हैसियत है १ ऊपर को बात कह्दी जा सकती है और डखका कोई खण्डन भी नहीं हों सकता। वह सत्य ही है। उस महासत्य के तले हमें विनीत ही बन जाना चाहिए । जब वह है, तब में कहाँ ? तब अहंकार कैसा ? जब हम ( अपने आपके ) सचमुच कुछु भी नहीं हैं, तब और किसको लद मानं ? नीच किसको मानें { तुच्छु किसको मानें ? हम उस महा- सत्य की अ्रनुभूति के तले अपने को शून्य ही मान रखने का तो अभ्यास कर सकते हैं । और बस । अहंकार से छुट्टी पाने से आगे हम उस महासत्ता के बहाने अपने में निराशा नहीं ला सकते, हम निराशा में प्रमाद-ग्रस्त नही बन सकते, अ्रनुत्तरदायी नहीं बन सकते, भाग्य-वादी नहीं बन सकते । यह भी एक प्रकार का अहंकार है। प्रमाद स्वार्थ है, उच्छुछुलता भी स्वार्थ है । हम जब देखने लगे कि हमारा अहंकार एक प्रकार से हमारी जड़ता ही है, अ्रज्ञान है, माया है, तब हम निराशा में भी पड़ सकने के लिए खाली नहीं रहते । निराशा एक विल्ञलास है, वह एक व्यसन है, नशा है । नशीली चीज़ कड़वी होती है, फिर भी ल्लोग उसका रस चुसते हैं। यही बात निराशा में है। निराशा सुख-प्रद नहीं है। फिरमी लोग हैं जो डसके दुःख की चुस्की लेते रहने में कुछ सुख को कोक का अनुभव करते हैं । जिसने इस महासत्य को पकड़ा कि में नहीं हूँ, में केवल अव्यक्त के व्यक्तोकरण के लिए हूँ, वह भाग्य के हाथ में अपने को छोड़कर भी निरन्तर क्मशील बनता ই। वह इस बात को नहीं भूल सकता कि कम उसका स्वभाव है और समस्त का वह अंग है। वह (साधारण अर्थौ में) सुख की खोज नहीं करता, सत्य की खोज करता है। डसे वास्तव के साथ अभिन्नता चाहिए | इसी अभिन्नता की साधना में, इस अत्यन्त




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