झांसीश्वरीचरितम् महाकाव्य का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से आलोचनात्मक अध्ययन | Jhansishwaricharitam Mahakavya Ka Sahityik Avam Aetihasik Drishti Se Aalochnatmak Adhyyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
272 MB
कुल पष्ठ :
280
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जिससे स्पष्ट होता है कि भारवि का स्थिति काल 634 से पहले का है तथा वे दक्षिण भारत में प्रसिद्धि
. प्राप्त कर चुके थे।
भारवि के यश गौरव का आधार उनका एकमात्र महाकाव्य 'किराताजुनीयम्
ही है। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य ने प्राजल कविता की दृष्टि से ओर व्यवहारिक नीति प्रतिपादन की
दृष्टि से संस्कृत साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है। महाकवि भारवि ने अति आकर्षक ओर
रोचक भाषा मे नीति के विलष्ट तत्वों का हृदयंगम कराने मै सचमुच अद्भुत सफलता प्राप्त की है।
अतः विद्वत्समाज ने इसे बड़ा ही सम्मान प्रदान किया है। आपके विषय में अति सुन्दर उक्ति किसी कवि |
के द्वारा कही गयी है- 1 পর त ह
नवसगेगते माघे नक्सगे कव नैषधे / ।
नवसगेः किराते च नवशब्दो न विद्ते ।/
उपमाकालिदासस्य भारवेरथगौरवम् ।
दणिडिनः पदलालित्यम् माघे सन्ति अयोगुणा।।
इस तरह संस्कृत की वृहत्रयी किरात, माघ, नैषध मेँ इसका प्रमुख स्थान हे।
किरातार्जुनीयम् का कथानक महाभारत के वनपर्व से लिया गया हे। 18 सगो. मे आबद्ध
इस महाकाव्य मेँ तपस्या करते हुये अर्जन का किरात वेशधारी शिव के साथ युद्ध होना ही वर्णिति किया ` ।
गया है। धूत क्रीड़ा मे अपना सर्वस्व हारकर पाण्डव दैतवन मे रहते है । एक गुप्तचर दुर्योधन के . छ £
सुव्यवस्थित शासन का वर्णन उनके समक्ष करता है जिसे सुनकर भीम ओर द्रोपदी युधिष्ठर को युद्ध
के लिये प्रेरित करते है किन्तु धर्मराज युधिष्ठर युद्ध के लिये उद्यत नही है। तव महर्षिं वेदव्यास 2
पाशुपतास्त्र' पाने के लिये तपस्या करने का परामर्श देते है। तब अर्जुन इन्द्रकील पर्वत पर * पाशुपत | 8 ১7
अस्त ' प्राप्ति हेतु तपस्या करते हैं जहाँ कई सुरांगनायें उनकी तपस्या भंग करने का प्रयास करती है| 3
है जिसमें वह असफल होती है। अन्त मेँ भगवान शंकर किरात् वेशधारी बन अजुन से युद्ध करते है तथां | ध
अजुन के साहस ओर बाहुबल से प्रसन्न होकर वह पाशुपत नामक दिव्य अस्त्र अर्जुन को देते हे। জী
কি अर्जुन की तपस्या का उद्देश्य था | यही इस महाकाव्य की कथा का सारांश है। इनके आरंभ के =
तीन सर्गं विशेष विलष्ट होने के कारण “ पाषाणत्रय ' नाम से विख्यात हैं।
किराताजुंनीयम् का आरंभ “श्री' शब्द से हुआ है - “श्रिय कुरूणामधियापस्य 9
` ` पोलिनीन् ” तथा प्रत्येक सर्गं के अन्त में लक्ष्मी शब्द का-प्रयोग-हुआ
स्स वीर हे। संस्कृत साहित्य भे इसके समान ओजगुण से परिपूर्ण इस तरह का उग्रकाव्य अन्य कोई
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