ओरियंटल कालेज मेगज़ीन भाग 17 | Oriental College Magazine Bhag 17

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Oriental College Magazine Bhag 17  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(৩). बर्गोविपयेय, द्विवणेलोप,, ओर समीकरण जैसे अपवादों को भी न भूलना चाहिए । यह्‌ पहला नियम मुख्याथेवाची शब्दों की व्युत्पत्ति मे सदायक्र है । यास्क द्वारा प्रतिपादित निबेचन का दूसरा नियम यह है कि यदि किसी शब्द के स्वर ओर व्याकरणुविहित संस्कार यथाथे न हों और धातुज्ज विकार भी उसमें न पाया जाता हो तो प्रधानतया अथे के आधार पर, उस शब्द का उपपादन कर देना चाहिए। ऐसे उप- पादन के समय वृत्ति-शाखप्रवृत्ति)-सामान्य विशेष उपकारक है। वृत्तिसामान्य से यहां पर अथेसारश्य का भी अभिप्राय है। अर्थात्‌ ऐसे स्थलों में शब्द की उपपत्ति इष्ट अथ से भिन्न तथा च्रप्रयुक्त रथे करो दी सङ्केतित करती है जन्तु उस इष्ट अथ मे उस शब्द्‌ के प्रयोग का कारण अर्थसादर्य होता है । जैसे कि शलः शब्द्‌ का जिस अथै म प्रयोग होता है, उसमे न तो स्वर तथा संस्कार ही अनुकूल ই জীহ नां ही तदनुकूल कोई धातु प्रतीत होती है अतः यहां कुशल शब्द की उपपत्ति तो (कुशान्‌ लाति' इस प्रकार उस शठ के स्वस्संस्कारानुरोध से कर देनी चाहिए ओर इष्ठ अथ में प्रयोग के लिए अथे- साहश्य का अवलम्बन करना चाहिए, अर्थात्‌ जिस प्रकार पेनी पैनी तथा शरसङ्कीसौ कुशाओं के लाने वाले के लिए विवेक की आवश्यकता है ( जरा सी असावधानता से उसकी अंगुली कट सकती है अथवा कुशा के स्थान में सरकण्डा आ सकता है ) इसी प्रकार जो विषम समस्याओं को भी सरलता से तथा सफलता से कर दिखाता है, उस अलङ्कर्मीण को फुशल कहते द । अत: ऐसे ऐसे लाक्षणिक शब्दों की व्युत्पत्ति कै लिए यह दूसरा प्रकार हँ । यद्यपि रेते ইউ হাহা मे अनेक शब्द्‌ ऐसे मिलते हैं जिनमें किसी भी अथे की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए भो युक्तियुक्त व्युत्पत्ति नहीं की जा सकती, तथापि पेते स्थलों मे भी अशक्ति नदीं दिखानी चादर) उस शब्द के किसी न किसी स्वर अथवा व्यज्लन की सहायता से ही उसका उपपादन कर देना चाहिये । वस्‍्तुतः ऐसे ऐसे शब्दों के लिए ही निरुक्त की आधश्यकता हैं। इस प्रकार के उदाहरण निरुक्त में पर्याप्त प्राप्त होते हैं। 'कम्बोजा:' “कम्बलभोजा: कमनीयभोजा वा! (कम्बलः कमनीयो ( प्राथनीयो 9 भवति ( शीतांतें: ) अथवा “श्रक्नं श्रयतेर्वा, श्रणातेर्वा, शम्नातेर्वा शृङ्ग का पहला निवेचन केवल व्यञ्जनसाभ्य से किया गया है, द्षरा स्वरव्यञ्चनसाम्य से श्रोर तीसरा व्यश्ननद्वयसाम्य से। इस प्रकार यास्क के नियम के अनुसार १०७, वप, 10०२९, १४55९ आदि शब्दों का 6९ए० 4० ०७९ से निवेचन करते समय श्रथवा इष्ट ( यज्ञ) का यम्‌ धातु से निवैवन्‌ करते समग्र उनकी बाह्य श्राकृति की असमानता से डरकर हमें सहकृोच नहीं होना चाहिये | तुलनात्मक भाषाविज्ञान बहुत से ऐसे उत्तम




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