जड़ की बात | Jad Ki Baat

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Jad Ki Baat by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जड़ की बात गई है, क्योंकि ईश्वर बदल गया हे। पहले ईदवर व > दूसरे जनम में नेको का इनाम मिल जाताथा। इससे नेकी हेरे के लिए लाभ का सौदा था। पर अब सहासन पर सरकार है और स्वर्ग की जगह तरह तरह की सरकारी पदविया है । स्वर्ग नेकी से मिलता था, पर रायबहादुरी धन से मिलती है । ईश्वर श्रौरो की सेवा से खश होता था, सरकार अपनी सेवा से खुश होती है । इसलिए पहले का लाभ का ভীহা গন প্সান্কং टोटे का होगया है। इससे कोई उसके भभट में नही पड़ता । श्रो., श्राप मोटर से उतरे हं, श्राप रायसाहब हैँ, अजी आपके कपडे श्रौर शक्ल वतलाती है, आदये, आइये, घन्य भाग्य । तशरीफ लादये । प्रौर तुम हो, निकलो ! ये दांगीले कपडे छेकर कहा घुसे चले भरा रहे हो ? क्या--? बीमार ' सडक | --तो में क्या जानू, उस गरीब को उठाने में कपडे मेरे खराब होगे । ,बस, बस, वको मत, चलो, हटो । हमारा व्यवहार ऊपर के मानिन्द है। और उससे देखा जा सकता है कि मनृष्य के लिए मनुष्यता लाभ का सौदा नही हू, बल्कि किसी कदर अमनृष्यता इस वक्‍त सौदा हूँ । क्या कहा ? आप नेको की और उसके नेक फल की श्रौर ईष्वर की और जगत की भलाई की बात करते है ” आप भोले हे । आप ख्वाब मे रहते हं । यग बुद्धिवाद का हैं और आप में बुद्धि नही है । श्राप भावुक है । भावुकता के कारण आप सीधी उन्नति की सडक पर से हट कर किसी सेवा-वेवा के चक्कर मे पडना चाहते है तो पड़िए । पर हम बताते है कि वह लाभ का सौदा नही है | और में यही कहना चाहता हु कि जब तक हमारे मानसिक और सामाजिक मूल्य ऐसे नही हो जायंगे कि श्रादमी का लाभालाभ ही मनू- ध्यता के पैमाने में नापा जाय, अर्थात्‌ जब तक आदमी धन से नापा जायगा मन से नही, तब तक हमारी लज्जा और रलानि के द्भ्य हमारी आंखों के सामने आते ही रहेगे ।




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