समर - यात्रा | Samar Yaatra

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Samar Yaatra by प्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जेल... [ १८. लोग कहते हैं, जुलूस निकालने से कया शेता है। इससे यह टिद्ध होता है कि इम जीवित हैं, श्रटल हैं और मेदान से इटे नहीं हैँ। हमें अपने हार न माननेवाले आत्माणियसान का प्रमाण देना था | दमें यह दिखाना था कि दम गोलियों ओर अत्याचारों से भयभीत होकर श्रपने लद्दय से इटनेबाले नहीं और हम उस अवस्था का अन्त करके रहेंगे, जिसका आधार स्वाथपरता ओर ख़न पर है | उधर पुलिस ने भी जुलूस को रोककर अपनी शक्ति ओर विजय: का प्रमाण देना श्रावश्यक समझा । शायद जनता को घोखा हो गया हो कि कल की दुघटना ने नौकरशाही के नैतिक ज्ञान को जाग्रत कर दिया है | इस धोखे को दूर करना उसने श्रपना कृत्तव्य समझा । वह यह दिखा देना चाहती थी कि दम तुम्हारे ऊपर शासन करने आये हैं ओर शासन करंगे। तुम्हारी ख़शी या नाराज़ी को हमें परवाह नहीं हे । जुलूस निकालने की मनाह्दी हो गई । जनता को चेतावनी दे दी गई कि ख़ब्रदार, जुल्लूस में न' आना, नहीं दुगति होगी । इसका जनता ने वह जवाब दिया, जिसने अधि- कारियों की आँखें खोल दी होंगी | संध्या समय पचास इज्ञार आदमी जमा हो गये । श्राज का नेतृत्व घुझे सोपा गया था। मैं अपने हृदय में एक विचित्र बल ओर उत्साह का अनुभव कर रही थी | एक अबला ज्ली, जिसे संसार का कुछ भी ज्ञान नहीं, जिसने कभी घर से बाहर पाँव नहीं निकाला, आज अपने प्यारों के उत्तग की बदौलत उस महान्‌ पद पर पहुँच गई थी, जो बड़े-बड़े अफ़सरों को भी, बड़े से बड़े महाराजा को भी प्रांत नहीं--में इस समय जनता के हृदय पर राज कर रही थी। पुलिस अधिकारियों की इसी लिए गुलामी करती है कि उसे वेतन मिलता है। पेट की गुल्लामी उससे सब कुछ करवा लेती रै । मक्षराजा का हुक्म लोग इसलिए मानते हैं कि उससे उपकार की आशा या हानि का भय होता है। यह भ्रपार जन-समुह क्‍या मुझसे किसी फ़ायदे की आशा रखता था, या उसे मुझसे किसी हानि का भय था! कदापि नहीं । फिर भी वह मेरे कड़े से कड़े हुक्म को मानने के लिए तैयार খা। इसी लिए कि जनता मेरे बलिदानों का आदर करती थी ; इसी लिए कि उनके दिलों में स्वाघोनता की जो तड़प थी, गुलामी के जंजीरों को तोड़ देने की जो बेचेनी थी, मैं उठ तड़प और बेचेनी की सजीव मूर्ति समझी जा रही!




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