प्राचीन जैन - इतिहास | Prachin Jain Itihas-1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.26 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री सूरजमल जैन - Shri Surajmal Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम भाग । ड
(४) इन तीनोंसे नीचेके मतुप्य शूद वर्णेके कदकाये | इन
ठोगोंकी संख्या पढ़िेके तीनों वणीसे बहुत .उप दहद थी । इन
लोगोंनि भी अपना दर बांधा था । और इमकिये प्राचीन भारतमें
बहुतसे गद राजा हो गये हैं ।
इ्त मकर भारतमें वर्णीकी स्थापना हुई इसके कोई तीन
हनार वर्ष बाद हिन्दुओंकी गठन हुआ । इसी समय
बड़े बड़े नगर और मंदिर बनाये गये । नये नये देवताओंकी
पुनना होने लगी | फिर नगर, देश और उपरसे नातियी
बनाई गई जिससे कि भारतमें हजारों नाहियें! हो गई ।
वर्तमान इतिहासकारोंका प्राचीन भारतके चारेमें यही अंनु-
मान है और यह अनुमान वेदोपरसे फिंया गया है । पूवे समयका
इतिहाप्त जाननेके ठिये इन छोगोंके पाप्त और कोई -साधन नहीं
है और नो कुछ अदुमान किया गया है बहू मी निश्चित नहीं
हुआ है। इसमें इन्दीं इतिहासकारोंगे बहुतपी हैं नो
कि हर नहीं हो सत्री हैं । वहुतसे एथ्वीके इतिहा-
सका प्रारम्भ चार या पांच इनार वर्षेने मानते हैं | छोकमंस्य
मतसे दूश हनार वर्पसे इतिहासओ प्रारम्भ
होता है। और मि० नारायण मवनराव पावगी पूरनानिवासीने जभी
जो * आर्नक्रेटल इन दी सहप्तिघुन ” नामक पुस्तक छिखी
है छिसा है. कि आये जाहिया विदेशोे न यहीं
सरतती नदी आादिके पास उत्पन्न हुई और से राख पचास
हजार चसे कम नहीं हुए |
User Reviews
No Reviews | Add Yours...