प्राचीन जैन - इतिहास | Prachin Jain Itihas-1

Prachin Jain Itihas-1 by श्री सूरजमल जैन - Shri Surajmal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम भाग । ड (४) इन तीनोंसे नीचेके मतुप्य शूद वर्णेके कदकाये | इन ठोगोंकी संख्या पढ़िेके तीनों वणीसे बहुत .उप दहद थी । इन लोगोंनि भी अपना दर बांधा था । और इमकिये प्राचीन भारतमें बहुतसे गद राजा हो गये हैं । इ्त मकर भारतमें वर्णीकी स्थापना हुई इसके कोई तीन हनार वर्ष बाद हिन्दुओंकी गठन हुआ । इसी समय बड़े बड़े नगर और मंदिर बनाये गये । नये नये देवताओंकी पुनना होने लगी | फिर नगर, देश और उपरसे नातियी बनाई गई जिससे कि भारतमें हजारों नाहियें! हो गई । वर्तमान इतिहासकारोंका प्राचीन भारतके चारेमें यही अंनु- मान है और यह अनुमान वेदोपरसे फिंया गया है । पूवे समयका इतिहाप्त जाननेके ठिये इन छोगोंके पाप्त और कोई -साधन नहीं है और नो कुछ अदुमान किया गया है बहू मी निश्चित नहीं हुआ है। इसमें इन्दीं इतिहासकारोंगे बहुतपी हैं नो कि हर नहीं हो सत्री हैं । वहुतसे एथ्वीके इतिहा- सका प्रारम्भ चार या पांच इनार वर्षेने मानते हैं | छोकमंस्य मतसे दूश हनार वर्पसे इतिहासओ प्रारम्भ होता है। और मि० नारायण मवनराव पावगी पूरनानिवासीने जभी जो * आर्नक्रेटल इन दी सहप्तिघुन ” नामक पुस्तक छिखी है छिसा है. कि आये जाहिया विदेशोे न यहीं सरतती नदी आादिके पास उत्पन्न हुई और से राख पचास हजार चसे कम नहीं हुए |




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